यूपी की नई आबकारी नीति, एक तीर से कई निशाने

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा नई आबकारी उत्पाद शुल्क नीति को मंजूरी दिये जाने के बाद शराब के धंधे को लेकर कयासों का दौर शुरू हो गया है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि नई आबकारी नीति में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल रहे हैं। नई आबकारी नीति में सबसे बड़ी बातों पर गौर किया जाय तो यह साफ है कि यूपी सरकार एक तो शराब कारोबार के धंधे में मुट्ठी भर लोगों के वर्चस्व को कम करना चाहती है। वहीं रंगीन पानी से सरकार अधिक से अधिक कमाई करने में भी गुरेज नहीं कर रही है। इसके अलावा योगी सरकार की नजर हरियाणा की आबकारी नीति में भी सेंधमारी की है। दरअसल दिल्ली और एनसीआर के शराब के शौकीन लोग सस्ती शराब के चक्कर में गुड़गांव पहुंच जाते हैं। इसमें नोयडा और गाजियाबाद में रहने वाले पियक्कड़ भी शामिल हैं जिसके चलते यूपी को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। गुड़गांव में सस्ती शराब होने के चलते ही दिल्ली से सटे यूपी के जिलों की शराब की दुकानों में सन्नाटा पसरा रहता है।

योगी सरकार की नई शराब नीति के बदलावों के परिणाम स्वरूप प्रदेश में अब कंपोजिट शराब की दुकानें देखने को मिलेंगी। बीयर और विदेशी शराब की दुकानों को एक ही इकाई में विलय करा जा सकेगा। साथ ही राज्य में अंगूर के बागानों और माइक्रोब्रेवरीज की शुरुआत के माध्यम से पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। यूपी की नई आबकारी नीति से दिल्ली और एनसीआर के लोगों को फायदा होगा। शहर की 2021-22 की आबकारी नीति अगस्त 2022 में वापस लिए जाने के बाद से दिल्ली में शराब की दुकानों को दो साल तक विकल्प और स्टॉक का संकट झेलना पड़ा था। नई शराब नीति का मुख्य उद्देश्य 55,000 करोड़ रुपये का राजस्व जुटाना और शराब कारोबार को अधिक मजबूत बनाना है। योगी सरकार 6 साल बाद नई शराब नीति लेकर आई है। हालांकि यह अभी तय नहीं किया गया है कि शराब के दामों में कोई बदलाव होगा या नहीं। इस नीति को लागू करने में पहले देरी हुई थी, क्योंकि महाकुंभ 2025 और मिल्कीपुर विधानसभा उपचुनाव के कारण आचार संहिता लागू थी।
नई आबकारी नीति को 5 फरवरी को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट बैठक में मंजूरी दी गई तो यह कहा जाने लगा अब तक दिल्ली के ग्राहक गुरुग्राम से शराब खरीदने को मजबूर थे। गुरुग्राम में शराब सस्ती और इसके अधिक विकल्प मिल रहे थे। नई यूपी उत्पाद शुल्क नीति के साथ राज्य में अधिक विकल्प मिलेंगे और पूर्वी और उत्तरी दिल्ली के लोगों को गाजियाबाद-नोएडा से शराब लेना पास रहेगा। आबकारी नीति में नई सुविधाओं की घोषणा पर यूपी के आबकारी आयुक्त डॉ. आदर्श सिंह कहते हैं कि राज्य में अब 3 प्रकार की शराब की दुकानें होंगी-मॉडल शॉप, देशी शराब की दुकानें और कंपोजिट दुकानें। उत्तर प्रदेश में अब हर जिले में फलों से तैयार वाइन की एक-एक दुकान होगी। मंडल मुख्यालय में इसके लिए लाइसेंस फीस 50 हज़ार रुपये व अन्य जिलों में 30 हज़ार रुपये फीस होगी। इससे फल उत्पादकों के उत्पादों की खपत बढ़ेगी। इसके अलावा हर राज्य में बड़े परिसर वाली कंजिट दुकानें खुलेंगी। यहां एक साथ विदेशी मदिरा, वाइन व बीयर उपलब्ध होगी लेकिन यहां मदिरापान की अनुमति नहीं होगी। अब से विदेशी मदिरा 60 और 90 मिलीलीटर में शीशे की बोतल व सिरोंग पैक में भी उपलब्ध होगी।
नई आबकारी नीति में यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी भी व्यक्ति या फर्म को अधिकतम दो दुकानें आवंटित हो सकेंगी। यह बात सामने आते ही सत्तर से 90 तक के दशक की याद ताजा हो जाती है। साल 1970-80 तक लाला मणिलाल, राजाराम जायसवाल, दीप नारायण जायसवाल, लाला राम प्रकाश जायसवाल, नारायण साहू का बोलबाला था। 1980-90 तक लाला जगन्नाथ जी, लाला मणि लाल, विनायक बाबू थे। 1985-88 के बाद जवाहर लाल और गोरखपुर के बद्री बाबू जायसवाल आये। उत्तर प्रदेश के शराब व्यापार पर 8 या 9 व्यापारियों जैसे बाबू किशन लाल, बद्री प्रसाद जायसवाल आदि का सिक्का चलता था लेकिन सबसे बड़ा नाम था जवाहर जायसवाल का। वह लिकर किंग के नाम से जाने जाते थे। इन्हें सिंडिकेट कहा जाता था यानी आसान भाषा में चंद लोगों का एक शक्तिशाली गुट जिसके सामने सरकार भी झुक जाती थी।
साल 1999 से 2004 तक सांसद रहे जवाहर जायसवाल अक्सर दावा करते मिल जाते थे कि वर्ष 1993 से लेकर 2000 तक मेरे ग्रुप के पास 22 ज़िले थे। इतना बड़ा बिज़नेस हिंदुस्तान में कभी किसी के पास नहीं रहा। 90 के दशक में अपने रसूख के चरम पर राज्य में सरकारी नीतियों, शराब के दाम, व्यवस्था पर दखल रखने वाले जवाहर जायसवाल के पास उनके मुताबिक करीब 10,000 दुकानें थीं। वैसे अकेले जवाहर जायसवाल की बात नहीं हैं। यूपी में लम्बे समय से शराब के व्यापार पर जायसवालों का कब्जा रहा है। जवाहर जायसवाल को ये बिज़नेस विरासत में मिला। वह 1972 में बिज़नेस में आये और अगले 8 सालों में पूरे बनारस पर उनका एकाधिकार सा हो गया। जायसवाल समाज से जुड़े कुछ लोग कहते हैं कि 50 साल पहले तक हमें कलाल बोला जाता था। कलाल मतलब जो कलाली का बिज़नेस करता है। कलाली मतलब शराब। कलाल को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था। लोग हमारा छुआ पानी भी नहीं पीते थे लेकिन वक्त बदला और शराब के बिज़नेस पर जायसवाल समुदाय का एकाधिकार ऐसा हुआ कि उनके प्रति समाज के अन्य वर्ग के लोगों का एकदम नजरिया ही बदल गया।
खैर 1993 से 2001 तक जवाहर जायसवाल का दबदबा रहा। वह लिकर किंग के नाम से जाने जाते थे लेकिन समय के साथ आबकारी नीति में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले। साल 2000 में राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी। एक्साइज मंत्री थे सूर्य प्रताप शाही। शराब व्यापारियों की मनमानी ख़त्म करने के लिए साल 2001-02 में नई आबकारी नीति आई और शराब कारोबार के बड़े प्लेयर के रूप में पॉंटी चड्ढा का उदय हुआ और साल 2012 तक उनका वर्चस्व रहा। मायावती और अखिलेश यादव सरकारों से नज़दीकियों के आरोपों के बीच पॉंटी चड्ढा का साम्राज्य फैलता गया लेकिन उत्तर प्रदेश में सेक्रेटरी एक्साइज रहे और 2001 की आबकारी नीति पर पीएचडी कर चुके डा. एसपी गौड़ के मुताबिक 2001 की आबकारी नीति में मानवीय लॉटरी से दुकानों के आवंटन का प्रावधान था और दुकाने के लिए कोई भी व्यक्ति जिसके पास अपनी या किराए पर प्रॉपर्टी हो वो आवेदन कर सकता था। इसके अलावा रिटेल दुकानदार कहीं से भी शराब खरीद सकते थे। इस नीति के अंतर्गत हर बॉटल पर होलोग्राम लगाया गया था, ताकि उसकी बिक्री राज्य के भीतर हो। प्रवीर कुमार के मुताबिक इस नीति में सबसे बड़ा बदलाव ये था कि नीलामी से मिलने वाली राशि की जगह मिलने वाली आमदनी को दो भाग में विभाजित कर दिया गया। लाइसेंस फीस और ड्यूटी। एक दुकान की लाइसेंस फीस वहां होने वाली बिक्री के आधार पर निर्धारित की गई जबकि फैसला हुआ कि शराब पर लगने वाला कर उसके डिस्टिलरी से बाहर निकलने से पहले ही सरकार इकट्ठा कर लेगी। नतीजा यह हुआ कि पुराने बड़े नाम धीरे धीरे बिज़नेस से बाहर हो गये। मोनोपली राज पर रोक लगी और नए लोग जैसे पूर्व बैंक अधिकारी, रिटायर्ड लोग, एमबीए ग्रैजुएट बाज़ार में उतरे जो पहले इसकी धूमिल छवि की वजह से इससे आम तौर पर दूर रहते थे। यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है।

अजय कुमार
लेखक उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।
मो.नं. 9335566111



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