डेहरी में मुस्लिम बंधुओं ने पुरखों से जोड़ा अपना नाता, बदल दी टाइटल
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अजब खोज में परिवार का महज एक ही सदस्य क्यों बदला टाइटल?
सुर्खियों की वजह भी गांव से जुड़े तकरीबन 3 दर्जन से ज्यादा हैं लोगविनोद कुमार
केराकत, जौनपुर। स्थानीय क्षेत्र अंतर्गत डेहरी गांव इन दिनों सुर्खियों में है। इन सुर्खियों की वजह भी गांव से जुड़े हुए तकरीबन 3 दर्जन से ज्यादा वह लोग हैं जिन्होंने अपने पुरखों की याद आने पर मुस्लिम नाम के आगे हिन्दू नाम का टायटल दुबे लिखकर अपने पुरखों से नाता जोड़ लिया है। सभी बड़े ही गर्व से कहते हैं कि हम कहीं और के नहीं हैं। यही भारत के रहने वाले हैं। हमारे पुर्वज हिन्दू ब्राह्मण परिवार से रहे हैं। 5—7 पीढ़ियों पूर्व में छांकने पर हमें अपने पुरखों के बारे में समुचित जानकारी हुई है। इतना ही नहीं, यहां की मुस्लिम समुदाय के लोग अब गायों की सेवा करना भी शुरू कर दिए हैं। बताया जा रहा है कि 2 साल पहले इस गांव के कुछ लोगों ने अपनी पूर्वजों की तलाश करनी शुरू कर दी जिसमें से नौशाद अहमद अब नौशाद अहमद दुबे हो गये हैं। हालांकि नौशाद को छोड़कर घर के किसी अन्य सदस्य ने अपना सर ने चेंज नहीं किया है। वही हाल शेख अब्दुल्ला का भी है जो अब शेख अब्दुल्ला दुबे हैं। ऐसे और भी नाम है जो सुनने को मिल रहा है जो नाम के आगे दुबे, तिवारी शांडिल्य आदि रख गाय की सेवा करने में लगे हुए है। अब सवाल यह उठता है कि अचानक इन लोगों को ऐसी क्या जरुरत आ गई जो पूर्वजों को खोजने लगे और इस अजब खोज में परिवार का महज एक सदस्य ही टाइटल ही क्यों चेंज किया जो चर्चा का विषय भी बना हुआ है।
कुर्ता पैजामा को हम मान लिये थे इस्लामी लिबाज: नौशाद अहमद दुबे
हम लोगों को अपनी जड़ों से जुड़ेंगे तो हमारा सौहार्द बढ़ेगा जिससे देश मजबूत होगा, इसलिए हम लोगों से कह रहे हैं कि अपने जड़ों को पता करिए और जड़ों के टाइटल को अपनाइए ये शेख, पठान, मिर्जा, सैयद हमारा भारतीय टाईटिल नहीं है। ये विदेशियों द्वारा लाया गया टाईटिल है। अब किन परिस्थितियों में लोगों ने अपनाया है और क्यों अपनाया, यह तो हमें नहीं पता है, मगर लोगों को अपने जड़ों के टाईटिल को ही अपनाना चाहिए जिससे देश और समाज का भला हो सके। मुसलमानों के अंदर जो भ्रांतियां है, उसके चलते तो हम यही कहेंगे कि हमने अपनी संस्कृति और सभ्यता को छोड़कर दरिद्रता अपना लिए हैं। हमारे पास अपना कुछ नहीं बचा। न टाइटिल बचा, नाम बचा और न ही संस्कार बचा। कुर्ता पैजामा को हम इस्लामी लिबाज मान लिये। बिरयानी मुगलई खाना को हम इस्लाम मान लिए तो इससे हमें दूर होना होगा। हम भारतीय रहकर भी इस्लाम और मुस्लिम फॉलो कर सकते हैं।
जड़ों को खंगाला गया तो पता चला कि हमारे पूर्वज हिन्दू थे: शेख अब्दुल्ला दुबे
कुर्ता पैजामा को हम मान लिये थे इस्लामी लिबाज: नौशाद अहमद दुबे
हम लोगों को अपनी जड़ों से जुड़ेंगे तो हमारा सौहार्द बढ़ेगा जिससे देश मजबूत होगा, इसलिए हम लोगों से कह रहे हैं कि अपने जड़ों को पता करिए और जड़ों के टाइटल को अपनाइए ये शेख, पठान, मिर्जा, सैयद हमारा भारतीय टाईटिल नहीं है। ये विदेशियों द्वारा लाया गया टाईटिल है। अब किन परिस्थितियों में लोगों ने अपनाया है और क्यों अपनाया, यह तो हमें नहीं पता है, मगर लोगों को अपने जड़ों के टाईटिल को ही अपनाना चाहिए जिससे देश और समाज का भला हो सके। मुसलमानों के अंदर जो भ्रांतियां है, उसके चलते तो हम यही कहेंगे कि हमने अपनी संस्कृति और सभ्यता को छोड़कर दरिद्रता अपना लिए हैं। हमारे पास अपना कुछ नहीं बचा। न टाइटिल बचा, नाम बचा और न ही संस्कार बचा। कुर्ता पैजामा को हम इस्लामी लिबाज मान लिये। बिरयानी मुगलई खाना को हम इस्लाम मान लिए तो इससे हमें दूर होना होगा। हम भारतीय रहकर भी इस्लाम और मुस्लिम फॉलो कर सकते हैं।
जड़ों को खंगाला गया तो पता चला कि हमारे पूर्वज हिन्दू थे: शेख अब्दुल्ला दुबे
हमेशा से ही हमारे पूर्वज हम लोगों की बताते रहे कि हम लोग हिंदू हैं। देश में एनआरसी लागू होने के बाद जब हम लोगों ने अपने पूर्वजों को खंगाला शुरू किया तो पता चला कि हमारे पूर्वज आजमगढ़ के मगरावा गांव के हैं जो डेहरी गांव में आके बस गए हैं। वहां हिंदू थे जिसके बाद हमने भी अपने नाम के आगे दुबे टाईटिल रखना शुरू कर दिया।