भरत मिलाप का प्रसंग सुनकर आंसू नहीं रोक पाये कथा प्रेमी

 नौ दिवसीय रामकथा के आठवें दिन उमड़ी भारी भीड़


महराजगंज, जौनपुर। स्थानीय क्षेत्र के बीआरसी महराजगंज बाजार में रामकथा स्थल में नौ दिवसीय के आठवें दिन व्यास निर्मल शरण महराज द्वारा अयोध्या से श्रीराम के 14 वर्ष वनवास यात्रा के बारे में बताया कि भरत के मामा घर से आने के बाद सीधे माता के कैकई और राम भैया को ढूढ़ते हुए उनके कक्ष में जाते हैं। उन्हें इसका आभास तक नहीं होने दिया कि उनके प्राण प्रिय भैया और भाभी 14 वर्ष के बनवास को अयोध्या से निकल गये। जानकारी होते ही वे रोते—बिलखते और कैकई माता को कोसते हुए कहते हैं कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, मगर माता कुमाता नहीं होती। इस बात को तुमने सिद्ध किया है, माता कुमाता होती है। यह कलंक यह पाप मेरे सर पर लगा। लोग क्या कहेंगे। भरत ने अपने भाई को राजगद्दी के लिए बनवास करा दिया तभी कौशल्या और सुमित्रा दोनों भरत को समझाती हैं कि पिता जी अब इस दुनिया में नहीं रहे। आओ उनका अंतिम संस्कार कर भैया को ढूढ़ने जाएंगे। राजा दशरथ की मृत्यु की खबर सुनकर भरत रोने लगते हैं। कर्म पूरा कर अयोध्या से अपनी तीनों मां के साथ अपने भाई को वापस लाने के लिए निकल पड़ते हैं। पीछे-पीछे प्रजा चल पड़े। निषादराज से जानकारी लेकर भरत अपने माताओं के साथ चित्रकूट पर्वत पर जाते हैं जहां लक्ष्मण जंगल से लकड़ियां चुन रहे थे। जैसे ही चक्रवर्ती सेना और भरत को आते देखा। आग बबूला होकर राम के पास आते हैं और कहते हैं कि भरत बड़ी सेना के साथ हमारी ओर बढ़ रहा है तभी राम मुस्कुराते हुए कहते हैं ठहर जाओ। अनुज भरत को आने तो दो। भरत राम के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगते हैं, फिर राम गले से लगाते हैं। भरत मिलाप के बाद तीनों माताओं का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते हैं और माता सीता भी अपनी तीनों सास के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेती हैं। उसके बाद भरत पिता के बारे में राम से कहते हैं कि अब हमारे बीच पिता श्री नहीं रहे। यह शब्द सुनकर श्रीराम और सीता लक्ष्मण व्याकुल हो शोकाकुल रहने के बाद राम को अपने साथ ले जाने के लिए भरत मिन्नतें करते हैं। मंत्री सुमंत और प्रजागण बार-बार उन्हें अपने साथ जाने के लिए मनाते हैं, मगर श्रीराम कहते हैं कि पिता के दिए हुए वचन का मर्यादा नहीं टूटे। इसके लिए हमें यहां रहने की अनुमति दें। रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई। यह कहकर लेने आए सभी लोगों को चुप करा देते हैं, मगर भरत मानने के लिए तैयार नहीं होते हैं। तब राम ने कहा प्रजा हित के लिए तुम्हें जाओ, अयोध्या के प्रजा जनों को देखना है। साथ में माताओं का भी दायित्व निर्वाह करना है। भरत ने श्रीराम के चरण पादुका को अपने सर पर उठाकर आंखों में अश्रु के साथ वहां से विदा होते हैं। 14 वर्ष तक श्रीराम के चरण पादुका को अयोध्या के राज सिंहासन पर रखकर खुद जमीन पर चटाई बिछाकर सन्यासी का जीवन व्यतीत करते हुए राजपाट संभालते हैं। कथा के दौरान बड़े ही उदास और व्याकुल मन से श्रीराम सीताराम का भजन कीर्तन करते हुए महाआरती के साथ प्रसंग समाप्त किया गया। कथा को लेकर आस—पास में भक्तिमय माहौल बना हुआ है। कथा का रसपान करने वाले सभी भक्तगणों को नंदलाल मोदनवाल (नंदा) ने आभार प्रकट किया। विशिष्ट अतिथियों को प्रतिमा देकर सम्मानित किया गया। कथा का संचालन शुभम काशी ने किया। इस अवसर पर पूर्व प्रधान सावित्री मोदनवाल, यज्ञाचार्य अखिलेश चंद्र मिश्र, आचार्य अरुण दुबे, खजांची लाल मोदनवाल, अशोक मोदनवाल, भोला प्रसाद सेठ, पूर्व प्रधान शिवपूजन सेठ, जय नारायण दुबे, धर्मराज मिश्र, राम सागर गिरी सहित सैकड़ों कथा प्रेमी उपस्थित रहे।


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