क्यों पीछे पड़ जाते हो...

 विधाता ने... कदाचित...!


जिंदगी की सारी इबारतें,
सारा का सारा लेखा...
सादे पन्नों पर ही लिख डाली...
उसके अक्षर और लेख भी...!
टेढ़े-मेढ़े होते गए हैं...
पंक्तियाँ भी... आड़ी-तिरछी सी...
मात्राओं की भी... भरपूर अशुद्धि...
वाक्य विन्यास तो...!
अक्सर बिगड़ा हुआ सा...
कहीं-कहीं स्याही की बूँद भी,
अकस्मात गिर ही गई हैं...
विराम चिह्नों का भी...!
किया है अनगढ़ प्रयोग...
और तो और इन लेखों में...
बेहद चतुराई से किया है...!
प्रश्नवाचक चिह्न से... अतिशय प्रेम...
पूर्ण विराम का तो... किया है...
बस एक बार ही उपयोग...
पर रस... दोनों ही भरे हैं इसमें...
चाहे संयोग हो या हो वियोग...
शायद... इसी का नतीजा है...
उसकी सुंदरतम रचना... मानव की...
जिंदगी की गाड़ी...!
कभी भी सरपट नहीं दौड़ी...
जब कभी आई... कुछ सुकून की घड़ी
सामने आ ही जाती है,
कोई ना कोई मुश्किल बड़ी...
अब सवाल यह उठता है विधाता...?
जब आपने ही करी है,
सब उल्टा-सीधा लिखा-पढ़ी...
उलझाए-बिखराए पड़े हो...!
सब की सब कड़ी...
फिर क्यों पीछे पड़ जाते हो,
लेकर खुद ही छड़ी...
क्यों पीछे पड़ जाते हो,
लेकर खुद ही छड़ी...

रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ

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