बढ़ती महंगाई एवं बेरोजगारी के बीच जले पर नमक है 'जीएसटी की मार'

 


टैक्स का यह नया डोज मिडिल क्लास को डरा रहा है जिसकी खपत करने की अपार क्षमता से इस देश में कारखाने और अंततः प्रगति के पहिये चलते हैं। इस देश की 35 करोड़ से भी ज्यादा मिडिल क्लास जनता इस समय मंहगाई की मार झेल रही है और लाखों के सिर पर बेरोजगार होने का खतरा अभी भी मंडरा रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 25 लाख से भी ज्यादा लोग बेरोजगार हो भी चुके हैं जबकि साधारण अनुमान के तौर पर एक करोड़ से भी ज्यादा। उनके पास जीवन यापन का कोई रास्ता नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 2022 में मंहगाई की दर 7.79 फीसदी थी और उसमें कमी तो आई है लेकिन वह न के बराबर है। अच्छी कृषि उपज के कारण गोदामों में अनाज की कोई कमी नहीं है लेकिन खाद्य सामग्री की ऊंची तथा रोजमर्रा की वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमतों के कारण उसका जीवन कठिन होता जा रहा है।

अब अचानक ही जीएसटी कांउसिल की अनुशंसा पर केंद्र सरकार ने कई वस्तुओं और सेवाओं पर जीएसटी लगाने की घोषणा कर दी तथा उस विशाल मिडिल क्लास की क्रय क्षमता को और धक्का पहुंचाया। अब दही, लस्सी, पनीर, छाछ, मखाना, शहद, पैक आटा वगैरह जैसे रोजमर्रा की चीजों पर भी जीएसटी लगना 18 जुलाई से शुरू हो गया। इसके अलावा स्कूली बच्चों के काम में आने वाली कई सारी वस्तुओं जैसे पेंसिल, शार्पनर, पेपर कटर, ग्लोब वगैरह पर भी जीएसटी लगना शुरू हो गया है। होटलों में 1,000 रुपये से ऊपर के कमरों पर भी जीएसटी लगेगा तो अस्पतालों के बेड को भी नहीं बख्शा गया जैसे कोई शौक से अस्पताल में एडमिट हो रहा हो। पैक कर बेचे जा रहे सभी तरह के अनाजों पर अब जीएसटी की मार पड़ी है। मिडिल क्लास और अपर मिडिल क्लास के लोग पैक दालें, चावल, मसाले, पनीर वगैरह ज्यादा पैसा देकर इसलिए खरीदते हैं कि ये साफ-सुथरे होते हैं और इनमें शुद्धता होती है तथा इनकी शेल्फ लाइफ कहीं ज्यादा होती है। अब इन पर भी 5 फीसदी जीएसटी लग गया है। यानी अगर पैसे बचाना हो तो खुला सामान खरीदिये जिन पर टैक्स नहीं है और न ही उस पर कोई ऐक्सपाइरी डेट लिखी हुई है। यानी आप अपने स्वास्थ्य की चिंता न करके खुले में मिलने वाला सामान खरीद लें। एक तरफ तो सरकार फूड प्रोसेसिंग को बढ़ावा दे रही है तो दूसरी ओर इस तरह के प्रतिगामी कदम उठा रही है।

केन्द्र सरकार की सफाई
काफी छीछालेदर के बाद केंद्र सरकार ने अपने बचाव में मुंह खोला है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 14 वस्तुओं की एक लिस्ट पेश की और कहा कि इन जिंसों को अगर खुला बेचा जायेगा तो इन पर जीएसटी नहीं लगेगा। इनमें आटा, दाल, चावल, दही, पनीर, लस्सी वगैरह हैं। उधर राजस्व सचिव तरुण बजाज ने 24 जुलाई को कहा कि इन सामानों पर टैक्स राज्यों की अनुशंसा पर लगाया गया है, क्योंकि जीएसटी काउंसिल में राज्यों का बहुमत है। वहां जो फैसले बहुमत से होते हैं उन्हें केंद्र को मानना ही होगा। इसकी संरचना कुछ ऐसी ही है। उन्होंने कहा, ‘इन उत्पादों पर टैक्स की चोरी हो रही थी जिसे रोकने के लिए यह कदम उठाया गया है। कुछ राज्यों ने भी इसकी मांग की थी। उन्होंने यह भी कहा कि जीएसटी लागू होने के पहले भी कई राज्यों में इन पर टैक्स लगता था। इनसे इन राज्यों को कमाई हो रही थी। अब वे फिर चाहते हैं कि इन पर टैक्स लगे और कमाई बढ़े।

काउंसिल समिति में उन्हीं राज्यों के सदस्य हैं।
पूर्व जीएसटी प्रिंसिपल कमिश्नर अनूप श्रीवास्तव कहते हैं कि इस टैक्स से दहशत में आने की जरूरत नहीं है। दरअसल इसके लिए जीएसटी के स्ट्रक्चर को समझना होगा। ये जो टैक्स लगा है, उसे उन सामानों के उत्पादक पैकिंग मटेरियल वगैरह में दिये गये टैक्स के बदले में ऑफसेट कर सकते हैं। वह जीएसटी के कागजात के आधार पर टैक्स में छूट ले सकता है जिससे यह 5 प्रतिशत अतिरिक्त पैसा जनता को नहीं देना होगा। उन्होंने कहा कि उत्पादक कंपनियों को इस पर ध्यान देना चाहिए और जनता से टैक्स नहीं वसूलना चाहिए।

राज्यों की खस्ता हालत और बढ़ते खर्चे
इस बार का यह टैक्स राज्यों के दबाव में लाया गया है। केंद्रीय राजस्व सचिव के इस बयान को मान लिया जाय तो यह बात साफ हो जाती है कि कई राज्यों की आर्थिक हालत बहुत खराब है। छह राज्य तो इस समय गरीबी की हालत में हैं लेकिन उससे भी बड़ी बात है कि ये राज्य अपने खर्चों पर जरा भी अंकुश नही लगा रहे हैं। उन्हें या ओवरड्राफ्ट की आदत पड़ गई है या फिर केंद्र पर निर्भर रहने की। सरकारी कर्मचारियों के वेतन, भत्ते, पेंशन के अलावा विधायकों, मंत्रियों वगैरह पर हजारों करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं लेकिन उसे कम करने की बात नहीं सोची जा रही है। ज्यादातर राज्यों ने सातवां वेतन आयोग काफी पहले लागू कर दिया जबकि उनकी माली हालत ऐसी नहीं थी। कर्मचारियों और नेताओं को खुश करने के लिए उठाया गया यह कदम उनके लिए कितना बुरा है, इसका अंदाजा शायद उन्हें नहीं है।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण राजस्थान सरकार का वह प्रतिगामी फैसला है जिसमें अशोक गहलोत सरकार ने पुरानी पेंशन वापस करने की घोषणा करते हुये कहा कि इससे कर्मचारियों को मन लगाकर काम करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा उन्होंने बिजली बिल में सब्सिडी देने की घोषणा की। वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर किया गया यह फैसला राज्य की भारी कर्ज में डूबी अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाएगी ध्यान रहे कि राजस्थान पर 4 लाख 50 हजार करोड़ का कर्ज है। उसके पास आय के स्रोत सीमित हैं। ज़ाहिर है कि ऐसे राज्य ही ज्यादा शोर मचा रहे हैं कि उन्हें पिछले बकाये के अलावा जीएसटी से और रकम मिले। इस समय ज्यादातर राज्य वोट बैंक पर खर्च करना चाहते हैं जिससे उनके वित्तीय हालत बिगड़ गई है। बहरहाल टैक्स का यह नया डोज मिडिल क्लास को डरा रहा है। यह वह क्लास है जो सबसे ज्यादा खरीदारी करता है और जिसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर खपत आधारित इकोनॉमी का ठप्पा लगा है। उनकी खपत करने की अपार क्षमता से इस देश में कारखाने और अंततः प्रगति के पहिये चलते हैं। कारखानों में मांग उनसे ही बढ़ती है और रोजगार भी बढ़ता है लेकिन बजाय उस क्लास को राहत देने के राज्य सरकारें और केंद्र सरकार भी उस पर टैक्स लाद रही है। मिडिल क्लास इस देश की अर्थव्यवस्था को चलाता है, न कि कोविड काल में भी रिकॉर्ड मुनाफा कमाने वाला कॉर्पोरेट सेक्टर लेकिन दुर्भाग्यवश उसकी बातें सुनने वाला कोई नहीं है। यही कारण है कि आज देश में मंदी की आहट सुनी जा रही है।
डॉ राहुल सिंह
निर्देशक
राज ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन, वाराणसी।

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