पुल अपने निजी स्वार्थ के लिए नहीं गिरा, बल्कि भ्रष्टाचार का मारा था, इसलिए भरभराकर गिरा

 एक गिर हुए पुल की व्यथा-कथा

साकेतिक फोटो 

हास्य-व्यंग्य

संतोष त्रिवेदी

 मैं एक गिरा हुआ पुल हूं। अभी हाल में गिरा हूं। सबके सामने, दिन-दहाड़े। मेरे पास मनुष्यों की तरह गिरने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। मैं स्वयं से नहीं गिरा, योजना बनाकर गिराया गया। यह मेरी नहीं, दूसरों की गिरावट है। मुझ पर लगातार आरोप लग रहे हैं कि मैं अचानक गिरा हूं। सच यह है कि बनने से पहले ही मेरे गिरने की नींव रख दी गई थी। मुझे गर्व है कि मैं अपने आप नहीं गिरा, न ही अपने लिए गिरा। वहीं जिन्हें सजीव कहा जाता है, वे अपने लाभ के लिए कभी भी गिर लेते हैं। धन और पद के लिए बह जाते हैं। इधर मुझे देखो। भारी बाढ़ में बहा। जब दबाव बढ़ा, तभी ढहा। मेरे साथ कई निर्दोषों की जान चली गई। इसके लिए मेरी थू-थू हो रही है। जबकि हकीकत यह है कि 'गिरने' और मरने वाले, दोनों ही मनुष्य थे। मीडिया ने सुर्खी दी कि पुल गिर गया। उसे भी नहीं दिखा कि इस 'गिरने' में कौन-कौन और कितना गिरा है, लेकिन वह भी क्या करे। उसे नहीं दिख रहा कि यह सामूहिक गिरावट का दौर है। हम गिरकर भी दूसरों को बचा रहे हैं। यह नए प्रकार का हुनर है।


मैं अकेले नहीं गिरा। मेरे और भी समकालीन भाई गिरे। उन्हें भी ठीक-ठाक बजट के साथ गिराया गया। हमें बनाने वाले विपुल धनराशि में फिसले और हम अथाह जलराशि में। हम गिरने में भी एक नहीं थे, जबकि हमें मिलकर गिराया गया। हमने गिरकर भी गुनाह नहीं किया, बल्कि जनसेवकों, अफसरों और ठेकेदारों के गुनाह उजागर किए हैं। फिर भी हमारी निंदा हो रही है। हमारे निर्माताओं के भीतर कुछ मरा हो या न हो, बल्कि मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे भ्रष्टाचरण से धूल-धूसरित हो गया। उनके हौसले तक पस्त नहीं हुए। नई योजनाओं के साथ 'वे' फिर से प्रकट होंगे। मेरा गिरना एक स्वाभाविक घटना थी। मैं स्वार्थ के लिए कतई नहीं गिरा। अंदर से भरा हुआ था, इसलिए भरभराकर गिरा। जो मैं देख रहा था, बनते समय वह किसी को नहीं दिखा। लूट-खसोट, परसेंट और अनियमितताओं का बोझ मैं अकेले कितने दिनों तक ढोता। मुझे बनते-बनते ही गिर जाना चाहिए था। फिर भी मैंने सब्र किया। भ्रष्टाचारी मुझ पर कूद रहे थे। छाती पर पत्थर रखकर सब सहा। मुझे दूसरों की चिंता थी। असहायों और जरूरतमंदों को उनके अपनों से मिलवाया। युवाओं को उनकी नौकरी और छात्रों को उनकी परीक्षाओं तक सही समय पर पहुंचाया। यह अलग बात है कि परीक्षाएं भी नहीं बचीं। वे एक-एक कर लीक हो रही हैं।यह गिरने से ठीक पहले की बात है। 

मैंने बिना भेदभाव के सबको नदी पार कराई। फिर भी मुझे उचित महत्व नहीं मिला। यहां तक कि एक ऊंचे कवि ने भी मुझे अहमियत नहीं दी। वह बार-बार सबको चेता रहा था, 'पुल पार करने से नदी पार नहीं होती, नदी में घंसे बिना पुल पार नहीं होता!' अब ऐसी कविता सुनकर कोई भी प्रेरित हो सकता है। मेरे निर्माता अति संवेदनशील थे। मुझसे ज्यादा मेरे निर्माताओं ने इससे प्रेरणा ली। उसी क्षण नदी में मेरा धंसना निश्चित हो गया था। पार होने के लिए धंसना ही विकल्प बचा तो मैं ही क्यों विद्रोह करूं। इसलिए पहली बारिश में ही मुक्ति की राह पकड़ ली। आगे भी पुल बनेंगे और ढहेंगे। पुलों का बह जाना आगे से कोई खबर नहीं होगी। ठीक वैसे ही जैसे अब मनुष्यों का 'बह जाना' कोई खबर नहीं है। फिर भी यह सवाल उठता है कि अगर मैं नियत समय पर नहीं गिरता, तो आधुनिक इंजीनियरों, अफसरों और जननायकों पर से जनता का भरोसा गिर जाता। मैंने सरकार को बहुत बड़े धर्मसंकट से बचा लिया है। ठेकेदारों का व्यवस्था पर भरोसा नहीं टूटने दिया है। सरकारी काम में एकता की मिसाल आगे भी कायम रहे। सभी मिलजुलकर गिरें, ऐसी कामना है। एक आखिरी बात। मुझमें और नेताओं में समानता की बात कभी मत करना। वे भ्रष्टाचार करते हैं, इस्तीफा तक नहीं देते और जब में भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता हूं, तो प्राणोत्सर्ग कर लेता हूं। एक पुल होने में और एक मनुष्य होने में यही बुनियादी फर्क है।


response@jagran.com

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  1. जितने खूबसूरत तरीके से आप ने एक एक शब्दों को गढ़ कर इस व्यंग्य की रचना करते हुए दर्शकों के सामने रखा गया है इसके लिए मैं संतोष जी को साधुवाद देता हूँ 🙏

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  2. बहुत सुंदर लिखावट

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