अपनी रोटी सेंक लेते हैं...
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अपनी रोटी सेंक लेते हैं...
बड़े जतन से...!
वह अपना चरित्र गढ़ता है,
वह कभी भी... दूसरों पर...
अपना दोष नहीं मढ़ता है...
खुद में... किताब होता है वह...!
इसी किताब को ही वह पढता है...
चाहे कितना ही लोग कहें,
कि उसमें अजीब सी जड़ता है...
और तो और... अपनी तरह ही...
वह लोगों का भी चरित्र पढ़ता है...
किसी के बुरे कमेन्ट्स पर...!
ध्यान देकर भी... बिना जबाब दिए...
वह धीरे-धीरे ऊँचाई चढ़ता है...
किसी को परखने की...!
फुरसत ही नहीं होती उसको,
ना किसी को कभी वह तड़ता है...
जो भी दिखती है विसंगति....!
बस उससे ही वह लड़ता है...
लोग भले कहते रहें कि,
वह तो आसमान में उड़ता है...
इसको ही... समाज का हर जागरूक
हर एक झण्डाबरदार...!
ईमानदार कहता है...
सच कहूँ तो... मित्रों...
समाज में इससे विरोध की...
नहीं होती किसी की औकात...
भारी नहीं पड़ते कभी भी,
इस पर कोई भी जज़्बात...
वह तो जानता भी नहीं,
दुनियावी लेन-देन की बात...
पर... अब सोचने वाली बात...
यह अपना ही है समाज
जहाँ अक़्सर सामने आती है,
एक अजीब सी बात...!
जब कह-कह कर कि...
है तो वह भी मानुष की ही जात...
अक्सर... अपने ही...!
उसकी ईमानदारी को बेच देते हैं...
और... उसकी... कोमल सी...
भावनाओं से खेल लेते हैं...
उसकी दृढ़ता की आड़ में...!
अपनी रोटी सेंक लेते हैं...
अपनी रोटी सेंक लेते हैं...
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ