कामयाब लोग चले विदेश, अभागे मिडिल क्लास, गरीब एवं ग्रामीण पर है देशभक्ति का सारा बोझ
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सवाल यह है कि ये लोग भारत और भारतीय पासपोर्ट को अलविदा क्यों कह रहे हैं। वह भी तब जबकि भारत अब एक स्थिर राष्ट्र के रूप में शक्ल ले चुका है, आजादी के 75 साल पूरे होने वाले हैं। अमृत काल का महोत्सव चल रहा है। कामयाब और अमीर लोग भारत और भारतीय पासपोर्ट छोड़ रहे हैं। पहले यह छिटपुट हो रहा था, अब तो मानो झुंड के झुंड लोग जा रहे हैं। देश को अलविदा कहने की होड़ सी लग गई है। 2020-2021 में 1.63 लाख भारतीयों ने अपनी भारतीय नागरिकता छोड़ दी और किसी और देश की नागरिकता पकड़ ली। 5 साल पहले के मुकाबले ये संख्या अब दोगुनी हो चुकी है।जो लोग भारत की नागरिकता छोड़कर जा रहे हैं, उनका पसंदीदा देश अमेरिका है। 78,000 भारतीयों ने अमेरिकी नागरिकता ली है। भारतीय लोगों की पसंद आमतौर पर पश्चिमी और अमीर देश ही है। अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा भारतीय ऑस्ट्रेलिया (23,533), कनाडा (21,597), ब्रिटेन (14,637) और इटली (5,986) जाकर बस गये। क्या ऐसे समय में हर साल डेढ़ लाख से ज्यादा समृद्ध और समर्थ भारतीय लोगों का देश छोड़कर चले जाना चिंता का कारण होना चाहिए?
मेरा मानना है कि इसमें चिंता की कोई बात नहीं है। यह एक वैश्विक चलन है। वजहें स्पष्ट हैं। एक बात स्पष्ट है। ये लोग भारत से मजबूरी में नहीं जा रहे हैं। ये मजबूरी का पलायन नहीं है। चंद अपवादों को छोड़ दें तो जो लोग भारत की नागरिकता छोड़ रहे हैं, वे देश के सबसे समृद्ध और सामाजिक रूप से सबसे ऊपर की श्रेणी के हैं। ये किसी युद्धरत या गृहयुद्ध से परेशान या सरकार पीड़ित लोगों का पलायन नहीं है। न ही भारत में कोई अकाल फैला हुआ कि उसकी पीड़ा से बचने के लिए लोग देश छोड़ दें। ऐसे मजबूर लोग न देश छोड़कर जाने की हैसियत रखते हैं और न ही ऐसे लोगों को कोई देश स्वीकार करेगा। अमेरिका जाकर बसने की शर्तें तो बहुत ही ऊंची हैं।
दरअसल ये लोग अपनी पसंद से देश छोड़कर हमेशा के लिए जा रहे हैं। लंदन स्थित एक वैश्विक नागरिकता सलाहकार फर्म हैनली ऐंड पार्टनर्स का कहना है कि इस साल भारत के 8,000 धन्ना सेठ हमेशा के लिए देश छोड़कर चले जाएंगे। देश छोड़कर जाने के पीछे कुछ कारण अक्सर बताए जाते हैं और वे गलत भी नहीं हैं। जहां ज्यादा पैसा हो, कमाई के अवसर हों, वहां लोग जाते ही हैं। जिंदगी की क्वालिटी बेहतर होना भी एक कारण है जिसकी वजह से लोग देश और नागरिकता बदल लेते हैं। भारत का जानलेवा प्रदूषण भी अमीर लोगों के देश छोड़ने की वजह है। कुछ लोग शिक्षा और रिसर्च के बेहतर मौके के कारण भी देश छोड़ देते हैं।
कुछ वजह ऐसी हैं जिनकी चर्चा कम होती है लेकिन जिस वर्ग के लोग विदेश बसने जा रहे हैं, उनके लिए इसका महत्व है। संयुक्त अरब अमीरात (दुबई) और सिंगापुर जैसे देशों में व्यक्तिगत टैक्स की दरें भारत से कम हैं। इसके अलावा काला धन पर शिकंजा कसने के कारण भी काफी लोग खुद या परिवार के किसी सदस्य को विदेश की नागरिकता दिला देते हैं, ताकि वे टैक्स और करेंसी के लेनदेन के कानूनी शिकंजे से बच जायं। 182 दिन या ज्यादा समय तक विदेश में रहने पर कानून की दृष्टि में वे नॉन रेजिडेंट बन जाते हैं और ये उनके तरह से कमाए गए धन को तमाम तरह की सुरक्षा देता है। भारतीय लोगों के हमेशा के लिए विदेश जाकर बस जाने के लिए भारत की आरक्षण नीतियों को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है लेकिन ये बहुत बड़ी वजह नहीं है, क्योंकि जो लोग विदेश जा रहे हैं, उनका जो क्लास है, वह भारत की सरकारी नौकरी से बहुत ऊपर है। ये लोग भारत में कोई भी सरकारी नौकरी मिल जाने पर भी विदेश चले जाते। साथ ही आरक्षण तो सिर्फ सरकारी नौकरियों में है जो कुल नौकरियों और रोजगार का बेहद मामूली हिस्सा है। उसका भारत से पलायन में अगर कोई रोल है भी, तो बहुत कम है।
भारत छोड़ो मुहिम की दो व्याख्याएं
मेरी राय में भारत छोड़कर हमेशा के लिए विदेश जाने के चलन को दो नजरिए से देखा जाना चाहिए। पहली बात तो यह है कि सफल भारतीय लोगों में खास तरह के अलगाववाद का विचार हमेशा प्रभावी रहा है। दूसरा, वे जा रहे हैं क्योंकि वे जा सकते हैं। समस्या ये नहीं है कि वे जा रहे हैं। समस्या यह है कि बहुत छोटे से वर्ग की ही ये हैसियत है कि वे देश छोड़ पा रहे हैं। अगर हम महानगरीय समृद्ध जीवन को देखें तो उनमें अलगाववादी प्रवृत्तियां साफ देखी जा सकती हैं। महानगरों की समृद्ध कॉलोनियां सुरक्षा के लिए सिर्फ पुलिस पर निर्भर नहीं हैं। उनके पास ऑटोमैटिक गेट, सीसीटीवी कैमरा, प्राइवेट गार्ड और खतरनाक कुत्ते सब हैं। इन कॉलोनियों के अपने डीजल जेनरेटर सेट हैं और बिजली रहने या न रहने का यहां के लोगों को पता भी नहीं चलता। पानी कितना भी खराब आ रहा हो, रिवर्स ऑस्मोसिस से ठीक हो जाता है। हवा को लेकर लंबे समय तक समस्या थी। अब एयर प्यूरीफायर आ गए हैं। इन कॉलोनियों के गेट पर पहरा होता है और अक्सर इनसे गुजरने वाली सरकारी और नगर निकायों की सड़कों पर इनके अपने गेट होते हैं। इनके जीवन में सरकार अक्सर अपराध की बड़ी घटना के समय ही आती है। ये कॉलोनियां काफी हद तक लघु राष्ट्र की तरह काम करती हैं और यहां आरडब्ल्यूए की सत्ता चलती है।
सरकारी बुनियादी ढांचे का भी ये लोग अक्सर इस्तेमाल नहीं करते। सरकारी अस्पतालों में ये नहीं जाते। सरकारी स्कूलों से इनको लेना देना नहीं है। कॉलेज और उच्च शिक्षा संस्थानों को लेकर समस्या है परंतु वहां भी अब प्राइवेट संस्थान आ गए हैं। ये अपने बच्चों को इंटरनेशल बोर्ड वाले स्कूलों में पढ़ाते हैं और बड़ी स्वास्थ्य समस्या होने पर अपनी इलाज विदेश में कराते हैं। ये छुट्टियां भी विदेशों में बिताते हैं।
यह सब सुनकर अगर आपका क्रांतिकारी या मार्क्सवादी मन जग रहा है तो ये बता देना जरूरी है कि इस जीवन शैली में कुछ भी गलत नहीं है। समस्या ये है कि भारत में ये जीवनशैली आम नहीं है। पश्चिमी देशों में यही साधारण जीवन शैली है। अगर ये जीवन शैली पूरे देश या देश के ज्यादातर लोगों की हो जाय तो मुमकिन है कि भारत में भी इतने अवसर पैदा हो जाएं कि लोग भारत छोड़कर जाने की न सोचें।
आखिरी बात, देश में ज्यादातर लोगों की जीवन शैली ऐसी क्यों नहीं है? इसकी वजह निश्चित रूप से भारत की आर्थिक नीतियों में है। आबादी का बहाना वाजिब नहीं है, क्योंकि भारत से घनी आबादी वाले देश और भारत से ज्यादा आबादी वाले देश ऐसे हैं जिनमें जीवन स्तर भारत से काफी ऊंचा है। हो सकता है कि ये सुनना कुछ लोगों के लिए तकलीफदेह हो लेकिन ये तथ्य है कि आजादी के बाद के 40 साल में भारत के विकास की दर बेहद सुस्त रही। इस दौरान नेहरू के सरकारी समाजवाद की नीति पर देश चल रहा था। उसके बाद उदारीकरण से हालात बदले। अर्थव्यवस्था की गति तेज हुई लेकिन तेज अर्थव्यवस्था के 4 या 5 दशक के बिना हालात नहीं बदल पाएंगे। खेती पर भी देश की विशाल जनता निर्भर है जबकि वहां कोई ग्रोथ अब होनी नहीं है। कम से कम इसके लक्षण नजर नहीं आ रहे हैं। भारत को लंबे समय तक तेज विकास के दौर पर ले जाना इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है।ऐसा होने पर ही बसने के लिए विदेश जाने वाली लिस्ट लंबी हो पाएगी। तब तक कुछ लोग जो भारत के सबसे सौभाग्यशाली हैं, विदेश जाकर बसते रहेंगे और बाकी जनता भारत माता की जय बोलती रहेगी। देशभक्ति का बोझ अपेक्षाकृत कम सौभाग्यशाली लोगों को ही उठाना पड़ेगा।
डा. राहुल सिंह
निर्देशक राज ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन वाराणसी।