भारत में जातिवाद एवं धर्म परिवर्तन

 प्राचीन काल में जाति प्रथा आर्थिक मजबूती हेतु श्रम विभाजन की एक समान सरल पद्धति थी जिसको 4 वर्ण भागों में बांटा गया था। समय बदलने के साथ इसमें इतनी जटिलता और संकीर्णता आ गई है कि 4 वर्ण विभाजन से आज जातियों की संख्या लगभग 2378 तक पहुंच गई है। मुसलमान के भारत में आने से पूर्व हमारे देश में कोई भंगी अछूत चमार जाति का इतिहास में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। मुगल काल में हिंदुओं से जबरदस्ती मल मूत्र उठाने का कार्य करवाया गया और उनको भंगी चमार दलित जाति बना दी गई, क्योंकि यह गंदगी में कार्य करते थे तो इनको छूना और खान-पान में लोगों ने दूरी बना ली। यहीं से मानवता के बीच जाति की खाई का आरंभ होता है। 1891 में अंग्रेजों ने हिंदुओं को 60 जातियों में बांटा तब से लेकर आज तक जातियों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। यह लगभग 2378 तक पहुंच गई है। जातिवाद का जहर आज इस कदर बढ़ गया है कि अब जातिवाद एवं राष्ट्रवाद पर प्रभावी होता दिख रहा है। इसी कमजोरी का फायदा उठाकर विदेशी शक्तियां भारत की भोली—भाली जनता को भड़काकर भारत विरोधी राजनीति को हमारे घर में ही स्थान दे रही हैं।

हमारे देश में एसटी की जनसंख्या 7 प्रतिशत और अनुसूचित जाति की संख्या 15 प्रतिशत है। सबसे ज्यादा इन्हीं दोनों को हिंदुओं की कमजोर कड़ी मानकर कुछ मिशनरीज और देश विरोधी संस्थाएं इनको धर्म परिवर्तन का लालच देकर भारत विरोधी गतिविधियों में इनको फंसा रहे हैं जबकि अंग्रेजों के समय में स्वतंत्रता आंदोलन में एसटी और एसटी समुदाय का विशेष योगदान रहा है। स्वतंत्रता के बाद भारत में कई बार ऐसे मौके आए जब राष्ट्रवाद के सामने जातिवाद पूरी तरह से निष्क्रिय हो गया परंतु कुछ राजनीतिक ठेकेदारों ने अपनी कुर्सी के लिए समय-समय पर जाति के इस जहरीले वृक्ष मैं नफरत के पानी से ऐसा सींचा कि आज जातिवाद का विष वृक्ष पूरी तरह से तैयार हो गया है। राष्ट्रीयता पर खतरा मंडराने लगा है। जातिवाद को क्या राजनीतिक रूप से समाप्त किया जा सकता है या समाज के लोगों की आपसी इच्छाशक्ति से कमजोर किया जा सकता है। यह प्रश्न भारतीय बुद्धिजीवियों के लिए चिंतन का विषय है।
हेमंत शुक्ला
शिवकुटी—प्रयागराज

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  1. जब तक लोकतंत्र रहेगा तब तक जाति तंत्र रहे गा मिलिट्री रूल लगाने से जाति तंत्र खत्म हो जाएगा

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