साहब, सरकार क सहारा मिल जात त हमार बेटवन चल पड़तें: कौशिल्या देवी
पनीहर गांव के एक परिवार के तीन भाई, किसी बीमारी के कारण हुये दिव्यांग
अजीब मर्ज के चलते चलना फिरना भी हुआ बोझिलनित्यक्रिया के लिये भी तीनों भाइयों को लेना पड़ता है सहारा
हम बात कर रहे डोभी विकास खण्ड से महज 10 किलोमीटर दूर जनपद के आखिर छोर पर स्थित पनीहर गांव की रहने वाली कौशिल्या देवी के तीनों बेटे दिव्यांगता की चपेट में आ गए हैं। जिनका चलना-फिरना तो दूर की बात है, उठना बैठना भी मुश्किल हो चला है। यदि किसी का सहारा न मिले तो वह नित्य-क्रियाओं से भी निवृत नहीं हो सकते हैं। लाचारी-बेबसी और ग़रीबी बेहतर उपचार में बाधक बन खड़ी हुई है, फिर भी दलित महिला कौशिल्या बेटों की हर जतन कर थकहार चुकी हैं। बेटों की खातिर मजदूर पिता ने भी यथा संभव दवा उपचार से लेकर जांच पड़ताल करवाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखा है। दवा-दुआ करवाया, लकवा पोलियो का इंजेक्शन भी लगवाया लेकिन आराम होने को कौन कहें न मर्ज का पता चल पाया और ना ही इससे राहत मिली है, बल्कि मर्ज बढ़ता ही गया।
बता दें कि धर्मेंद्र कुमार 30 वर्ष, वीरेंद्र कुमार 25 वर्ष एवं योगेंद्र कुमार 21 वर्ष को दिव्यांगता ने इस कदर जकड़ लिया है कि उनका उठना-बैठना और चलना-फिरना भी मुश्किल हो उठा है। धर्मेंद्र और योगेंद्र जहां कक्षा 8 तक कि शिक्षा ग्रहण किए हुए हैं तो वीरेंद्र ने दसवीं तक कि शिक्षा हासिल किए हुए है। तीनों भाई आगे भी पढ़ने और कुछ बनने का सपना संजोए हुए थे लेकिन नियति को कौन जानता था। ग़रीब बेबसी भरा पारिवारिक माहौल भले ही रहा है लेकिन तीनों भाइयों में जोश जुनून जरूर रहा कुछ करने बनने का जो काफूर हो चुका है। हाल और हालात पूरी तरह से बदल उठे हैं। तीनों भाई जिंदा लाश बनकर हर पल किसी के सहारे के मोहताज हो चुके हैं।
ग्रामीणों की मानें तो चुनाव में वोट मांगने आने वाले जनप्रतिनिधियों ने भी कभी इनकी ओर झांकने का साहस नहीं किया है। कौशिल्या देवी बेटों की हालत देखकर रो पड़ती हैं। कहती हैं— "साहब लोगों क सहारा मिल जात त हमार बेटवन अपने गोड़े पर चल पड़ते...!" सवाल उठता है कि सरकार दिब्यांग लोगो के लिए कई सारी महत्वाकांक्षी योजनाएं चला कर परिवार को लाभान्वित कर रही है। कौशिल्या देवी सरकार व जिम्मेदार अधिकारियों से अपील कर परिवार को विकलांगता से निजात दिलाने व जीवन यापन के लिए में मदद की गुहार लगा रही है। बहरहाल जिम्मेदार अधिकारी व जनप्रतिनिधि कब इस परिवार पर ध्यान आकृष्ट करते है, देखना दिलचस्प होगा।
दिव्यंका के चलते तीनों भाइयों का विवाह भी नहीं हो पाया है। पढ़ने-लिखने की हसरत पहले ही बोझिल हो चुकी है। गांव की सड़क के किनारे बने एक कमरे के छोटे से मकान के सामने झोपड़ पट्टी में बैठे तीनों भाई हर आने जाने वाले लोगों को देखते तो जरूर हैं लेकिन इतना साहस नहीं कि वह अपने पैरों पर चलकर किसी से मिल बोल पाये। पिता पूना में रहकर तीनों बेटों के पेट पालने के लिए जहां मेहनत मजदूरी कर रहे हैं तो वहीं घर पर मां कौशिल्या बेटो की देखभाल में ही दिन व्यतीत करते हुए आ रही हैं।