कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
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साहित्यिक विभूति नीरज जी के 100वें जन्मदिन (4 जनवरी) पर विशेषसंजय सक्सेना
आज से सौ साल पहले यानी 4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के छोटे से जिला इटावा के पुरावली गाँव के एक हिन्दू कायस्थ परिवार बाबू ब्रज किशोर सक्सेना के यहां बेटे का जन्म हुआ था। ब्रज किशोर के नाम से ही इस बात का अहसास हो जाता था कि उनकी आस्था किससे जुड़ी है। कृष्ण भक्त इस परिवार ने बड़े अरमानों के साथ बेटे का नाम भी गोपाल रखा जो अपनी लेखनी के चलते कालांतर में गोपाल दास नीरज के नाम से हिन्दी साहित्य की महना विभूति बन गया। मात्र 6 वर्ष की आयु में गोपाल के पिता जी गुजर गये थे, गोपाल दास नीरज का पालन-पोषण उनकी मॉ ने ही किया।
उत्तर प्रदेश के जिला एटा से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद गोपाल ने इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया, फिर एक सिनेमाघर में नौकरी की। कई छोटी-मोटी नौकरियां करते हुए 1953 में हिंदी साहित्य से एम.ए. किया और अध्यापन कार्य से संबद्ध हो गये। इस बीच कवि सम्मेलनों में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। इसी लोकप्रियता के कारण उन्हें मुम्बई तब की बंबई से एक फ़िल्म के लिए गीत लिखने का प्रस्ताव मिला और फिर यह सिलसिला आगे बढ़ता ही गया। नीरज ने कभी मुड़कर नहीं देखा। फिल्मी इंडस्ट्री में भी नीरज अत्यंत लोकप्रिय गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए और उन्हें 3 बार फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। जीवन के अंतिम पड़ाव में नीजर का मुम्बई की चकाचौंध वाली जिंदगी से मन ऊब गया तो वह इटावा के पास के ही जिले अलीगढ़ वापस लौट आये जहां उनके बच्चे रहते थे।
गोपाल दास नीरज का पहला काव्य-संग्रह ‘संघर्ष’ 1944 में प्रकाशित हुआ था। अंतर्ध्वनि, विभावरी, प्राणगीत, दर्द दिया है, बादल बरस गयो, मुक्तकी, दो गीत, नीरज की पाती, गीत भी अगीत भी, आसावरी, नदी किनारे, कारवाँ गुज़र गया, फिर दीप जलेगा, तुम्हारे लिए आदि उनके प्रमुख काव्य और गीत-संग्रह हैं। अपनी लेखनी के चलते नीरज जी विश्व उर्दू परिषद पुरस्कार और यश भारती से सम्मानित किए गए थे तो भारत सरकार ने उन्हें 1991 में पदम् श्री और 2007 में पद्म भूषण से अलंकृत किया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें भाषा संस्थान का अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया था।
नीरज को बम्बई के फिल्म जगत से गीतकार के रूप में पहली बार नई उमर की नई फसल के गीत लिखने का निमन्त्रण दिया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।
गोपाल दास नीरज अपनी आलोचना करने से कभी नहीं चूकते थे। अपने बारे में उनका एक शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है जिसके चंद बोल थे, ‘इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में लगेंगी, आपको सदियाँ हमें भुलाने में। इसी तरह से ‘न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में ‘काफी लोकप्रिय हुआ।
नीरज जी की कालक्रमानुसार प्रकाशित साहित्य कृतियों की बात की जाये तो संघर्ष (1944), अन्तर्ध्वनि (1946), विभावरी (1948), प्राणगीत (1951), दर्द दिया है (1956), बादर बरस गयो (1957),मुक्तकी (1958),दो गीत (1958),नीरज की पाती (1958)। गीत भी अगीत भी (1959), आसावरी (1963), नदी किनारे (1963), लहर पुकारे (1963), कारवाँ गुजर गया (1964), फर दीप जलेगा (1970), तुम्हारे लिये (1972), नीरज की गीतिकाएँ (1987) काफी लोकप्रिय हुईं। गोपाल दास नीरज को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये 1970 के दशक में लगातार तीन बार जिन गीतों के लिए नामांकित किया गया, उसमें 1970 में काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म चंदा और बिजली), 1971 में बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म पहचान), 1972 में ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म मेरा नाम जोकर शामिल थीं। पद्म भूषण से सम्मानित कवि, गीतकार गोपालदास ’नीरज’ ने दिल्ली के एम्स में 19 जुलाई 2018 की शाम लगभग 8 बजे अन्तिम सांस ली तो हिन्दी साहित्य का एक सितारा अस्त हो गया।