आवरण.... आकर्षण.....

आओ याद करें हम सब,

जो कुछ है भूला-बिसरा...
दिन वही पुराना वाला,
हर ओर रहा जब सन्नाटा पसरा...
खुली देह थी खुला गेह था,
ना किसी से इतना ज्यादा नेह था...
मनमाने के मीत रहे सब,
सब का अपना अपना गीत था...
जो मिल गया प्रभु की माया से,
मिल-बाँट खान की रीति थी...
मित्रों इतनी अच्छी सी,
आपस में सबमें प्रीत थी....
जाने कौन सा भोगी आया....!
तरह-तरह की माया फैलाया,
आग लगाई उसने हर ओर,
भोजन हो या हो जीवन डोर...
देकर आवरण हर तन को,
हर लिया मानव के कोमल मन को...
मानो या न मानो मित्रों...!
देकर आवरण की यह आड़,
बना दिया मानव जीवन को भाँड़...
यही ढकी हुई मानव की काया,
देखो फैलाए है... सबके मन में...!
आकर्षण की अद्भूत माया....
गौर से देखो तो मित्रों...
यही आवरण ही तो... जग में अब...!
सब का आचरण तय है करता...
इसी आड़ ही में देखो...!
छुपी हुई माया-काया के प्रति,
सबका... आकर्षण है बढ़ता....
इस आकर्षण की ही माया से...!
मित्रों... पहले वाली प्रीत गई,
मिल बाँट के खाने वाली रीति गई,
कहने को तो सब सभ्य हुए हम....!
पर आपस की छीना-झपटी,
अब एक दूजे की नीति भई...
और कहूँ क्या ज्यादा मित्रों...!
इस आकर्षण की ही माया में,
सगरी लोगन की तो अब,
सुख-चैन की नींद गई... और...
सब कुछ पा लेने की चाहत में,
मानवता अब भटक दिन-रैन रही...
मानवता अब भटक दिन-रेन रही...

रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज।

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