भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका

प्राचीन समय से 'धर्म और राजनीति' अथवा 'राजनीति और धर्म' में गहरा संबंध रहा है। जब-जब धर्म व राजनीति का नकारात्मक मिलन हुआ है तब तब राजनीति ने धर्म का दुरुपयोग किया है। धर्म के नाम पर शुद्ध राजनीति करने से विश्व में हमेशा खून खराबा हुआ है जो आज भी जारी है। आज भी सभी धर्मों में धर्मांध कट्टरपंथी मरने मारने को तैयार है। प्रारंभ में धर्म, शासन के लिए सुव्यवस्था और सुनीति का संस्थापक बना लेकिन बाद में अनेक शासकों ने धर्म विशेष को अपना राजधर्म घोषित किया और अपने अनुयाइयों की संख्या बढ़ाने के लिए धर्म की आड़ में युद्ध की है। इस्लाम, ईसाई, यहूदी और हिंदू धर्म से पृथक हुए कुछ वर्गों ने शक्ति की आड़ में अपनी मान्यता वह अपने धर्म के विस्तार का कार्य किया। धर्म की आड़ में साम्राज्य का विस्तार किया गया और अनेक देशों में परस्पर युद्ध हुए। विगत लगभग 2000 वर्ष का इतिहास धर्म के नाम पर अनेक बार रक्तरंजित हुआ। 20वीं सदी के उत्तरार्ध में धर्म आधारित युद्धों पर कुछ हद तक विराम अवश्य लगा किंतु धार्मिक श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए धर्म की आड़ में आतंकी गतिविधियों की बाढ़ आ गई है। आतंकवादियों ने दूसरे धर्म अनुयायियों को अकारण शिकार बनाना आरंभ कर दिया भारत इसका सबसे बड़ा शिकार है।


धर्म व राजनीति के सम्बन्ध
राम मनोहर लोहिया के अनुसार "धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं परन्तु दोनों की जड़ें एक ही धर्म दीर्घकालीन राजनीति में जब की राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम भलाई करना और उसकी स्तुति करना है जबकि राजनीति का कार्य बुराई से लड़ना और बुराई की निंदा करना है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब राजनीति बुराई से लड़ने के स्थान पर केवल निंदा करती है तो वह कलही हो जाती है, इसलिए आवश्यक नहीं कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व को समझा जाए। धर्म और राजनीति का विवेकपूर्ण मिलन मालवीय कल्याण में साधक होता है जबकि इन दोनों का अविवेकपूर्ण मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है जो मानवता के लिए अनिष्ट कारी होता है। इस अविवेकपूर्ण मिलन से सांप्रदायिक कट्टरता उत्पन्न होती है। धर्म और राजनीति को पृथक करने का सबसे बड़ा उद्देश्य यही है कि दोनों अपने मर्यादित क्षेत्र में सक्रिय रहे किंतु दोनों एक—दूसरे का अपने ही निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए दुरुपयोग न करें।
वस्तुतः धर्म और राजनीति में सदैव मर्यादित संपर्क बना रहना चाहिए, ताकि दोनों एक दूसरे का परस्पर सकारात्मक सहयोग कर सकें। नीतिगत धर्म पर धर्मप्रद राजनीति का अनुगमन विश्व शांति की स्थापना के लिए अपरिहार्य है। राजनीति का धर्म को और धर्म का राजनीति को नकारात्मक रूप से प्रभावित करना मानवता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे धार्मिक प्रतिक्रियावाद, कट्टरपंथ, सांप्रदायिकता व गुलामी की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है जो स्वतंत्रता और समानता जैसे महत्वपूर्ण मूल्यों को प्रभावित करती हैं, इसलिए आज विश्व में अधिकांश लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाया गया है।
भारतीय राजनीति के निर्धारक तत्व में भी धर्म और सांप्रदायिकता को अत्यंत प्रभावशाली माना गया है जहां एक और धर्म का प्रयोग तनाव उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। वहीं दूसरी और धर्म का प्रभाव और शक्ति अर्जित करने का एक माध्यम भी मान लिया गया है। भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत को अपनाया है। भारतीय राजनीति में धर्म की निर्मल की भूमिका देखी जाती है-
1. धार्मिक व सांप्रदायिक राजनीतिक दल- स्वतंत्रता पूर्व ही भारत में धर्म के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन होने लगा था। जैसे मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा आदि। धर्म के नाम पर भारत का विभाजन होने के बावजूद यह राजनैतिक दल न केवल अस्तित्व में रहे बल्कि धार्मिक सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते रहे। यह सांप्रदायिक दल धर्म को राजनीति में प्रधानता देते हैं धर्म के आधार पर प्रत्याशियों को चुनाव करते हैं और संप्रदाय के नाम पर वोट मांगते हैं।
2. धार्मिक दबाव समूह- धार्मिक संगठन भारतीय राजनीति में सशक्त दबाव समूह की भूमिका अदा करते हैं। यह समूह न केवल शासन की नीतियों को प्रभावित करते हैं, बल्कि अपने पक्ष में अनुकूल निर्णय भी करवाते हैं। उदाहरण के रूप में हिंदुओं की आपत्ति और आलोचना के बावजूद हिंदू कोड बिल पास कर दिया गया किंतु अन्य संप्रदाय के संबंध में कोई ऐसा महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया। भारत में कई मुस्लिम संगठनों के विरोध के कारण एक समान सिविल संहिता का निर्माण नहीं हो सका है।
3. पृथक राज्यों की मांग- अनेक बार अप्रत्यक्ष रूप से धर्म के आधार पर पृथक राज्य की मांग भी की जाती है। पंजाब में अकाली दल द्वारा अलग राज्य की मांग ऊपरी स्तर पर तो भाषा ही नजर आती है परंतु यथार्थ रूप से यह धर्म के आधार पर पृथक राज्य की मांग थी। आगे कुछ ऐसा ही नागालैंड के ईसाई समुदाय ने भी पृथक राज्य की मांग का आधार तैयार किया है।
4. मंत्रिमंडल का निर्माण- केंद्र एवं राज्य के मंत्रिमंडल के निर्माण में भी हमेशा इस बात को ध्यान में रखा जाता है कि प्रमुख धार्मिक संप्रदायों के लोगों को उसमें प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाय।
5. उम्मीदवारों का चुनाव- सभी राजनीतिक दल चुनाव से पहले अपने उम्मीदवारों का चयन करते हैं। ऐसा करते समय लगभग सभी राजनीतिक दल उम्मीदवारों के धर्म तथा चुनाव क्षेत्र के लोगों के धर्म के प्रति विशेष ध्यान देते हैं। इस प्रकार धर्म को समक्ष रखकर उम्मीदवारों का चयन भारतीय राजनीति पर सांप्रदायिक प्रभाव दर्शाता है।
6. धार्मिक अल्पसंख्यकों को संतुष्ट करने की नीति- भारत में संसदीय लोकतंत्र को अपनाया गया है। शासन की अंतिम शक्ति जनता के हाथ में होती हैं तथा सरकार बहुमत के आधार पर लोगों के मतों से बनाई जाती हैं, इसलिए प्रत्येक दल बहुमत प्राप्त करना चाहता है। इस इच्छा की पूर्ति के लिए सभी राजनीतिक दल कुछ महत्वपूर्ण धार्मिक अल्पसंख्यकों को संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं, ताकि वे अधिक से अधिक मत प्राप्त कर सके इस प्रकार की गतिविधियां राजनीति को सांप्रदायिकता रंग देने के लिए उत्तरदायी होती है।
7. धर्म के आधार पर प्रतिनिधि- प्रत्येक राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चयन करते समय इस बात का प्रयास करते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोगों को अपने उम्मीदवारों की सूची में शामिल करें, ताकि उन धर्मों के लोग उस दल को मत दे तथा संतुष्ट रहे।
8. धर्म पर आधारित चुनाव विश्लेषण- भारतीय राजनीति में धर्म के प्रभाव को इस बात में भी अनुमानित किया जा सकता है कि जो चुनाव विश्लेषण पत्रिकाओं में छपते हैं वे भी मुख्यतः धर्म एवं जाति पर आधारित होते हैं। विश्लेषणकर्ता चुनाव निष्कर्ष मतदाताओं के धर्म एवं उम्मीदवारों के धर्म के आधार पर ही निश्चित करता है।
भारत में अनेक धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं, इसलिए संविधान निर्माताओं ने सम्पूर्ण भारत के लोगों को भ्रातृत्व के सूत्र में बांधने के ख्याल से ही संविधान में भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया। इसका एकमात्र उद्देश्य था कि धर्म को राजनीति से हटा दिया जाय लेकिन व्यवहारिक रूप से धर्म का प्रभाव भारतीय जनता के मस्तिक से से नहीं मिट सका और आज भी राजनीति में धर्म और संप्रदाय में भेदभाव विद्यमान है। आज के राजनीतिक दल धर्म और संप्रदाय को राजनीतिक सफलता के रूप में मानते और अपनाते हैं। आम चुनाव के दिनों में धार्मिक आधार पर प्रतिनिधित्व की मांग की जाती है। संक्षेप में भारतीय राजनीति में धर्म एवं संप्रदायिकता का प्रभाव बढ़ने से धर्मनिरपेक्ष राजनीति के विकास का मार्ग अवरूद्ध हुआ है। अतः आवश्यकता है कि वर्तमान परिस्थितियों में हम अपनी समस्त संघ संकीर्णताओं को तिलांजलि देते हुए राजनीतिक चेतना की जनसाधारण में वृद्धि करें और लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने में अपना सकारात्मक सहयोग दें, तभी भारत में सच्चे धर्म निरपेक्ष राज्य का स्वरूप कायम हो सकता है।
डॉ. राहुल सिंह
निर्देशक
राज ग्रुप ऑफ इंस्टिट्यूशन बाबतपुर, वाराणसी।

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