देखा न भले कभी हमने...

 देखा न भले कभी हमने...!

निशिचर की माया से,
देवों को होता पस्त....
मगर किताबों में पढ़ते आये,
निशिचर अक्सर करते रहते थे,
सब देवों को त्रस्त...
खण्डित करते यज्ञ कभी ये,
कभी तो कर देते रवि को अस्त...
ताड़ना से इनके...अक़सर...!
त्राहि-त्राहि करते दिखते सब भक्त...
अट्टहास करते हरदम,
लिए हाथ में मानव अस्थि...
आँखें रक्तिम रहती इनकी,
मदिरापान किए रहते हरवक्त...
किसकी हिम्मत होती...!
जो टोंक सके इनको उस वक्त....
पीड़क-व्यभिचारी नियत इनकी,
कर जाते यह सब की संपत्ति जब्त...
अय्यारी का गुण ये रखते,
झट हो जाते कहीं से चम्पत....
गरम-गरम सी इनकी सांसें रहती,
काया-लोहू दोनों रहते तप्त....
डर भयानक तन-मन को देते ,
भर कर मुँह में मानव रक्त...
मिल जाय भले... सब कुछ जीवन में..
पर... कोलाहल में ही रहने को,
जीवन इनका होता अभिशप्त...
अब सुनो गौर से मेरे मित्रों,
हर युग में होते हैं ऐसे निशिचर....
बस भाषा-परिभाषा में...!
थोड़ा हो जाता है अंतर....
बचा नहीं है... यह काल खण्ड भी...
दिखते ही रहते हैं निशिचर....
परपीड़क बन इत-उत फिरते,
बने हुए हैं ये सबके शनीचर..
पाप कर्म से है नाता इनका
नियम-कानून को तो...
माने.... बस पोथी-पत्थर....!
गंगाजल को भी बस पानी माने,
खुद को माने सदा पवित्तर...
गाली बकते, धौंस जमाते,
खुद बनते हरदम नेता अव्वल...
सबको सदाचार का उपदेश सुनाते,
खुद ढूँढे जन्नत की हूर बहत्तर...!
बात मेरी तुम मानो मित्रों....
जब तक है जीवन धरती पर....!
नहीं कोई है ऐसी जन्तर,
जो भगा सके धरती से निशिचर...
और तो और सुनो तुम प्यारे,
जैसे अटल "सत्य" है, अटल "झूठ" है
अटल "पाप"है, अटल "पुण्य" है...और,
अटल हैं "सूरज-चन्दर".. बस वैसे ही..
अटल हैं इस धरती पर... ये निशिचर..
"ये निशिचर"...."ये निशिचर"......!

रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज

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