जब उसने कहा... मैं परेशान हूँ....

जब उसने कहा...

मैं परेशान हूँ....
कुल मिलाकर तीन शब्द...!
झकझोर दिया... मेरे अंतर्मन को...
आत्मीय भाव से.... निर्विकार...
बोले गए इन तीन शब्दों ने...
कुछ तो अपना समझा होगा...
तभी तो... उसे मिला होगा बल...
किसी से यह कहने का कि...
मैं परेशान हूँ.... मैं परेशान हूँ...
वरना समाज में तो... आजकल...
"मैं ठीक हूँ"....का ही चलन है...
भले ही सब जानते हैं...
"मैं ठीक हूँ" के कारण ही लोगों में...
एक दूसरे से जलन है...
टूटा होगा कोई सपना... या फिर...
टूटा होगा कोई अपना...
तभी तो... उसने ढूँढ़ा होगा...
मुझ जैसा कोई खास अपना...
गौर करो मित्रों....!
कौन दे रहा है अब के समाज में,
किसी को कोई संबल...?
हँसते दीखते लोग-बाग,
देख-देख... एक दूजे का दर्द...
नहीं कोई है साथ खड़ा,
बनकर किसी का हमदर्द...
नहीं किसी के पास हैं,
फ़ुरसत के ऐसे दो-चार पल...
कर जायें जो... किसी की...!
परेशानियों का कोई हल....
नात-बात हो... या हों रिश्तेदार...
बीज़ूका सा खड़े होकर...!
देखें सब दुनिया का व्यापार...
मीत सामने से... हैं सब कोई...
पीछे से हैं... इज़्ज़त के चौकीदार...
लाभ-हानि को तोलते पहले...
फिर करते सब जग-व्यवहार...
बहुरूपिया बन घूम रहे सब,
सब के सब हैं सौदागर....
स्वारथ भर के मीत हैं,
देखें बस अपना-अपना घर...
इन बगुला भगतों से...!
क्या उम्मीद करेगी वह ...?
मैं परेशान हूँ...मैं परेशान हूँ...
कहकर बारम्बार...
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद—कासगंज।

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