छूत-अछूत में भेद करो नहीं, जाकर देखो कहीं मधुशाला....

छूत-अछूत में भेद करो नहीं,

जाकर देखो कहीं मधुशाला।
मन मैल करोगे मिलेगी न मुक्ति,
संभालो जो ब्रह्मा दिए तुम्हें प्याला।

झुक जाता है सूरज चंदा के आगे,
पीता है निशदिन भर-भर प्याला।
तेरे होंगे जब कर्म मधु-रितु जैसे,
तब छलकेगी अधरों से अंतर हाला।

जाति-कुजाति के चक्कर पड़ो न तू,
हाथ लगा बड़ी मुश्किल से प्याला।
ज्ञान के होंठ से दूर करो न तू,
खिसकाओ न औरों की खातिर हाला।

जाते समय पछताएगा केवल,
मिट्टी से सोना बना जानेवाला।
देखो सूर, कबीर, रहीम पिए जो,
वो पीकर प्यास बुझा मतवाला।

मिट्टी का प्याला है दुर्लभ बहुत ये,
काल प्रबल है समझ पीने वाला।
मोक्ष की आस लगाया है तूने जो,
जाना पड़ेगा तुम्हें मधुशाला।

सोने का घर हो या माटी का हो घर,
या आती हो घर में भले सुरबाला।
दुनिया है सोने के मृग के ये जैसी,
ठगों से बचाएगी मेरी मधुशाला।

मत रौदों अछूतों को पैरों तले फिर,
पड़ेगा तेरा उससे सुन पाला।
जातीय उन्माद ये ठीक नहीं सुन,
श्मशान में डोम जलाने ही वाला।

श्रीराम जी शबरी के बेर चखे थे,
अंगूठे के दान की जिन्दी है छाला।
कर्मों की जाँच करेगा विधाता,
मिलेगी न दुबारा तुम्हें मधुशाला।

रामकेश एम. यादव मुम्बई
कवि व लेखक

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