भरम मेरा बस इतना है
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रावण तुम तो ज्ञानी थे.... पर...!तुमको भी... ठग ही गई...
सोने की जंजाली माया...
सपनों का संसार रचा तुमने,
रचा अभियांत्रिकी का...!
अद्भुत-स्वर्णिम इतिहास...
तुमने दुनिया को दिखलाया,
कैसा होता है विकास...
ईट-सीमेंट-कंकरीट छोड़,
रच दी सोने की प्यारी लंका...
सच मानो रावण तुमने...!
बजा दिया था जग में डंका..
यह दीगर बात रही रावण.…!
हनुमान ने थी पाई शोहरत,
कभी जलाकर तेरी ही,
सोने वाली प्यारी लंका...
एक बात और कहूँ मैं रावण
विद्वानों में तो....!
है अभी भी यह शंका...
क्या सच में रची गई थी...?
या सच में जली थी सोने की लंका
विमर्श भले ही इस पर...!
होता आया है जब-तब...
पर यह तो सच है रावण,
कम ना हुई है जग में...!
इस सोने की माया अब-तक...
कौन अजूबा है जग में...?
जो न जाने सोने की माया...
जिसको देखो जग में,
इसकी ही चाहत में...!
इत-उत-जीवन भर भरमाया...
कौन कामिनी रही अछूती...?
जिसको ना यह सोना भाया...
सच मानो तो इसी भार से...!
भारी दिखती उसकी कंचन काया
गौरतलब है यह भी रावण...
सीता ने जंगल में वास किया,
जो खुद अवतारी माया थी...
उनको भी छल ही गई,
सोने वाली माया थी....
अब तेरा भी मैं क्या दोष कहूँ...?
तेरी तो माटी वाली काया थी...
भरम मेरा बस इतना है...!
तुम जैसे भोले के भक्तों पर...
कैसे आयी सोने की छाया थी...?
कैसे आयी सोने की छाया थी...?
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद कासगंज