भारतीय लोकतंत्र और बदलता राजनीतिक मंजर
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राहुल सिंहयह बात तो सबको मालूम है कि भारत के लोकतंत्र में एक बुनियादी परिवर्तन आ रहा है। यह बात कई बदलावों से ज़ाहिर होती है जिसमें चुनावी मुक़ाबले के मिज़ाज में आया संस्थागत बदलाव, मध्यम वर्ग की तादाद में कई गुने का इज़ाफ़ा, सोशल मीडिया का बढ़ता दायरा और समाज के पुराने दर्ज़ों के पतन जैसी बातें शामिल हैं। 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी के सामाजिक और भौगोलिक विस्तार ने देश के राजनीतिक परिदृश्य को भी बदल डाला है। इसका नतीजा ये हुआ है कि कांग्रेस और हाशिए पर चली गई है। वाम मोर्चा लगभग ख़त्म हो गया है और राज्यस्तरीय पार्टियों की ताक़त लगातार कम होती जा रही है। बीजेपी ने चारों दिशाओं में अपना व्यापक विस्तार किया है।
इससे मतदाताओं के उन समूहों में बहुत हेर-फेर देखा जा रहा है। पहले जिनका इस्तेमाल सामाजिक दरारें बढ़ाकर अपने पाले में लाने के लिए किया जाता रहा था। इसी तरह पिछले दो दशकों के दौरान राज्य स्तर की वह विशेषताएं जो पिछले दो दशकों में चुनावी विश्लेषण की राजनीतिक परिचर्चा पर हावी थीं। अब वह कुछ हद कमज़ोर हो गई हैं। ख़ास तौर से राष्ट्रीय राजनीति की दशा दिशा को समझने में उन बातों की अहमियत ख़त्म हो गई है। बिना राजनीतिक दलों के आधुनिक लोकतंत्र की परिकल्पना करना नामुमकिन है, क्योंकि वह 3 अहम क्षेत्रों में जनता और हुकूमत के बीच कड़ी की भूमिका निभाते हैं।
आज जब भारत अपनी आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है तो हम तेज़ी से बदल रहे इस राजनीतिक परिदृश्य में देश के लोकतंत्र को उसका वर्तमान स्वरूप देने में राजनीतिक दलों की भूमिका का मूल्यांकन कर रहे हैं। बिना राजनीतिक दलों के आधुनिक लोकतंत्र की परिकल्पना करना नामुमकिन है, क्योंकि वो तीन अहम क्षेत्रों में जनता और हुकूमत के बीच कड़ी की भूमिका निभाते हैं। सियासी दल, व्यक्तिगत शिकायतों की मतदान के ज़रिए अभिव्यक्ति, राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बढ़ाने का ज़रिया और राजनीतिक समाधान के लिए तमाम वर्गों के हितों के मंच का काम करते हैं।
भारत में दलगत व्यवस्था का विकास:—
राजनीतिक दलों के अपने संगठनात्मक जीवन होते हैं लेकिन वह स्थायी पार्टी व्यवस्था भी होते हैं। सियासी दल, व्यवस्था का ‘अंग’ होते हैं। ऐसे में ज़ाहिर है कि जब व्यवस्था में बदलाव होता है तो उसका असर ‘अंगों’ पर भी पड़ता है। यह बात सब मानते हैं कि भारत में दलगत व्यवस्था ने अपने आग़ाज़ के साथ अब तक कम से कम चार परिवर्तन होते देखे हैं। पहली दलगत व्यवस्था (1952-1967) में कांग्रेस सबसे ताक़तवर पार्टी थी जो राष्ट्रीय स्तर के चुनाव के साथ ज़्यादातर राज्यों में भी जीता करती थी और अन्य दलों पर हावी रहती थी। इसी वजह से उस दौर को ‘कांग्रेस व्यवस्था’ के तौर पर शोहरत हासिल हुई। दूसरे दौर में कई राज्यों में कांग्रेस के ख़िलाफ़ विपक्ष का उभार देखा गया जिससे राज्य की दलगत व्यवस्था (1967-1989) में ध्रुवीकरण होता देखा गया। इस दौर में वैसे तो कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर के चुनाव जीतती रही लेकिन राज्यों में ग़ैर कांग्रेसी विपक्षी दल बड़े स्तर पर सीट और वोट जीतने लगे। राजनीतिक दलों के अपने संगठनात्मक जीवन होते हैं लेकिन वह स्थायी पार्टी व्यवस्था भी होते हैं। सियासी दल, व्यवस्था का ‘अंग’ होते हैं. ऐसे में ज़ाहिर है कि जब व्यवस्था में बदलाव होता है तो उसका असर ‘अंगों’ पर भी पड़ता है।
तीसरे दौर में कांग्रेस के बाद की राजनीति का आग़ाज़ हुआ। एक प्रतिद्वंदी बहुदलीय व्यवस्था (1989-2014), जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस का दबदबा नहीं बचा। इस दौर में हमने केंद्र में गठबंधन सरकारें बनती देखीं, क्योंकि कोई एक दल अपने बूते बहुमत हासिल नहीं कर सका था। इस चरण में राष्ट्रीय राजनीति हो या फिर राज्यों की सियासत, दोनों में राज्य स्तर के दलों की ताक़त और बढ़ गयी। देश की मौजूदा दलगत व्यवस्था की शुरुआत 2014 में हुई जब भारतीय जनता पार्टी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया। बीजेपी के 2019 में दोबारा अपने दम पर बहुमत हासिल करने और अपनी पहुंच और बढ़ाने से भारत ने अब एक दल के दबदबे वाले दूसरे दौर में प्रवेश कर लिया है। आज भारतीय राजनीति का पलड़ा दक्षिणपंथ की तरफ़ इस क़दर झुक गया है कि सियासी रणनीति और दांव-पेंच के मामले में विपक्ष या तो ख़ामोश बैठा है या उसका कोई भी दांव काम नहीं आ रहा है।
भारत की दलगत व्यवस्था को गढ़ने वाले अहम पहलू:—
वह कौन सी वैचारिक रूप-रेखा है जिसके आधार पर भारत में चुनाव लड़े जाते हैं? और किस तरह ‘आइडियाज़ ऑफ़ इंडिया’ ने देश के राजनीतिक दलों, दलगत व्यवस्था और लोकतंत्र को आकार दिया है? इस मामले में 5 बड़े प्रचलन देखे जा सकते हैं। भारत की दलगत सियासत बड़े गहरे स्तर पर वैचारिक है और हुकूमत की सही भूमिका को लेकर मतभेदों ने आज़ादी के बाद से ही देश की दलगतू व्यवस्था में बदलावों को प्रभावित किया है। सरकार को सामाजिक व्यवस्थाओं में दख़ल देना चाहिए या नहीं। उसे कमज़ोर तबक़ों से विशेष तरह का व्यवहार करना चाहिए या नहीं? इन जैसे कई मुद्दों को लेकर अलग अलग विचारों की ऐतिहासिक परंपराएं रही हैं। इन विचारों ने ही बीसवीं सदी के आधे हिस्से के दौरान देश की आज़ादी के आंदोलन की दशा दिशा पर अपना असर डाला था।
राजनीतिक दलों के वैचारिक स्तर पर चलाए गए आंदोलन ने कांग्रेस के प्रभुत्व वाले दौर को बहुदलीय मुक़ाबले में बदला और अब उसी वजह से बीजेपी का एकदलीय दबदबे वाला दौर आया है। इसके चलते न केवल राजनीतिक दलों के भीतर अधिक से अधिक वर्गों की नुमाइंदगी बढ़ी है, बल्कि संसद और राज्यों की विधानसभाओं में भी समाज के तमाम वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है- यानी अधिक ग्रामीण और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि शामिल हुए हैं। कुछ मामलों में भारत की राजनीति पहले की तुलना में आज अपने सामाजिक ढांचे का काफ़ी हद तक अक़्स बनती दिख रही है। यह विडंबना ही है कि इसी दौरान विधायी संस्थानों के नियमों और काम के तौर-तरीक़ों में भी गिरावट देखी गई है।
इस लम्बे ऐतिहासिक संघर्ष में बीजेपी की मौजूदा जीत उसकी इस क्षमता की कामयाबी है कि वह देश के उन नागरिकों को अपने पाले में करने में कामयाब रही है जो सामाजिक नियम कायदों में सरकार की दख़लंदाज़ी नहीं चाहते हैं। संपत्ति के वितरण से सरकार को दूर रखना चाहते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों समेत सभी सामाजिक समूहों को ख़ास पहचान देना चाहते हैं। बीजेपी के समर्थकों में वो लोग भी शामिल हैं जो लोकतंत्र का मतलब बहुसंख्यक वर्ग के मूल्यों को तवज्जो देना समझते हैं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवाई करने और आज़ाद भारत के 75 वर्षों में से तीन चौथाई समय तक राज करने वाली कांग्रेस लगातार हाशिए पर चली जा रही है। कांग्रेस का सामाजिक समर्थक वर्ग और उसका वैचारिक दायरा लगातार सिमटता जा रहा है, इसलिए राजनीतिक मुक़ाबले का उभरता हुआ ढांचा ये संकेत दे रहा है कि आने वाले समय में राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी को किसी ख़ास विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। हालांकि राज्य स्तर पर बीजेपी के सामने चुनौतियां खड़ी होती रहेंगी।
भारत ने देश में दलों के गठन के कम से कम पांच दौर देखे हैं: आज़ादी के पहले का दौर दलगत व्यवस्था के चार चरण वाले दौर। भारत में राजनीतिक दलों के गठन की प्रक्रिया आसान बनी हुई है और इसी वजह से देश की दलगत व्यवस्था में हर साल (अगर सैकड़ों नहीं तो) दर्जनों पार्टियां शामिल होती हैं लेकिन इनमें से गिने चुने दल ही बमुश्किल दो चुनावी चक्रों से आगे का सफ़र तय कर पाते हैं। छोटे दल अक्सर अपना विलय बड़ी पार्टियों में कर देते हैं या गुम हो जाते हैं। मतदाताओं के स्तर पर बड़े पैमाने पर उथल-पुछल के बावुजूद राजनीतिक नाम आम तौर पर स्थिर होते हैं और पार्टी के ब्रैंड की अहमियत बनी हुई है। अपने बलबूते पर निर्दलीय चुनाव जीत पाने वाले उम्मीदवारों की तादाद बहुत कम बनी रहती है। इसी तरह बहुत से राजनीतिक दल एक दूसरे से काफ़ी मिलते चुलते हैं- फिर चाहे उनका संगठन का ढांचा हो, काम-काज का तरीक़ा या फिर लोगों कोऊ एकजुट करने वाले नारे-ज़्यादातर दलों में आज फ़ैसले लेने की प्रक्रिया केंद्रीकृत हो गई है और चुनाव में उम्मीदवार का प्रचार पार्टी अपने विशाल संसाधनों या राजनीतिक विरासत के बल-बूते पर करती है। राजनीतिक दलों में आलाकमान वाली बढ़ती प्रवृत्ति के भारतीय लोकतंत्र में गंभीर परिणाम देखने को मिल रहे हैं, क्योंकि ऐसे राजनीतिक दल सामाजिक गिले-शिकवों को दूर कर पाने में नाकाम रह जाते हैं। इसका नतीजा ये होता है कि समाज के ये शिकवे सड़कों पर गैर दलीय गोलबंदी के रूप में नज़र आते हैं। इसी तरह भारत के सियासी दल, राजनीतिक गोलबंदी के माध्यम वाली अपनी भूमिका ठीक से निभा पाने में नाकाम रह रहे हैं। आज अलग अलग हित समूहों का व्यापक गठजोड़ बनने के बजाय, ज़्यादादर सियासी दल कुछ ख़ास वर्गों या समाज के सीमित स्तर के नुमाइंदे बनते जा रहे हैं। हालांकि अपने भीतर इस गिरावट के बाद भी ज़्यादातर सियासी दल, लोकतंत्र में अपनी कुछ अहम ज़िम्मेदारियां अच्छे से निभा रहे हैं।
आख़िर में विपक्ष के ख़ेमे में बिखराव और बीजेपी के दबदबे के चलते आने वाले वर्षों में देश की सत्ता अधिक रूढ़िवादी और ग्रामीण सामंती वर्ग के हाथों में जा सकती है। सत्ता के इस हस्तांतरण से वैचारिक मतभेद और गहरे होने की आशंका है। इससे सामाजिक नियमों और उदारवादी मूल्यों पर होने वाली परिचर्चाएं आने वाले लंबे समय तक और अधिक विवादित बनी रहेंगी। वैसे तो लोकतंत्र के प्रक्रिया के बुनियादी पहलू जैसे कि समय पर चुनाव को तो अभी ख़तरा नहीं दिख रहा है लेकिन लोकतंत्र के दूसरे व्यापक पहलुओं को निश्चित रूप से नुक़सान होगा और इसी मामले में भारत के लोकतंत्र की नए सिरे से परिकल्पना करने में राजनीतिक दलों की भूमिका और भी अहम हो जाती है।
सियासी दल और लोकतंत्र की गहरी जड़ें:—
ऐसे में सवाल ये है कि हम अपनी सियासत के उभरते विरोधाभासों को कैसे समझें: एक मज़बूत प्रतिद्वंदी राजनीतिक व्यवस्था जहां राज्य स्तर के दल विधानसभा के अहम चुनाव जीतें और एक सक्रिय नागिरक समूह जो बीजेपी के वैचारिक दबदबे के बीच सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करे? और हम उस विरोधाभास की व्याख्या कैसे करें। जहां एक तरह ज़्यादातर सियासी दलों का एक संगठन के तौर पर पतन होता जा रहा है और उन पर आलाकमान वाली केंद्रीकृत व्यवस्था हावी होती जा रही है। वहीं दूसरी ओर यही राजनीतिक दल हाशिए पर पड़े समूहों की नुमाइंदगी करने जैसे लोकतांत्रिक परिणाम देने की अहम भूमिका भी निभा रहे हैं।
भारत में सियासत का रोज़मर्रा की बात होना और नेताओं की उद्यमिता वाली भावना किसी भी राजनीतिक संस्कृति का दबदबा स्थायी बनाने से रोकने का काम करेगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत का लोकतंत्र अपने आप में अनूठा है। ये संस्थागत ढांचे का एक नतीजा भी है और समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी विरोधाभासी ताक़तों के दबाव में अचानक पैदा हुआ परिणाम भी है। भारत के राजनीतिक दल इन सामाजिक ताक़तों के लिए एक मंच का काम करते हैं। हालांकि उनका रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है। वह कुछ अपनी भूमिकाओं में तो सफल रहे हैं और कुछ में नाकाम भी रहे हैं। इन सियासी दलों का लचीलापन और फ़ुर्ती से ख़ुद को नए हालात के हिसाब से ढाल लेने की ख़ूबी रोज़मर्रा की राजनीति को ऊर्जावान बनाए रखती है। भारत में सियासत का रोज़मर्रा की बात होना और नेताओं की उद्यमिता वाली भावना किसी भी राजनीतिक संस्कृति का दबदबा स्थायी बनाने से रोकने का काम करेगी। इसके अलावा भारत की सभ्यता वाली विविधता का मतलब ये है कि कोई भी चुनावी बहुमत स्थायी नहीं है और न ही कोई वैचारिक दबदबा हमेशा क़ायम रहने वाला है। भारत के इस विविधता भरे ढांचे में लगातार होने वाले बदलावों से, एक—दूसरे के विरोधाभासी नतीजे निकलते रहेंगे और ये परिणाम ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संतुलन बनाए रखने का काम करेंगे।
लेखक डायरेक्टर राज स्कूल आफ मैनेजमेंट साइंस बाबतपुर वाराणसी हैं।