लांचिंग पैड पर ही क्यों फेल हो जाते हैं राहुल गांधी?

सुरेश गांधी

देखा जाय तो राहुल गांधी एक ऐसे नेता हैं जिन्हें न सिर्फ हर बार असफलता ही हाथ लगती है, बल्कि ‘आंख मारने’, बिल फाड़ने से लेकर ‘फ्लाइंग किस’ जैसी अजीब-ओ-गरीब हरकतों व भाषा शैली के चलते मजाक के पात्र तक बन जाते है। खास बात यह है कि उनकी यही हरकते उन्हें बचखाना तो बनाती ही है, भाजपा जैसी ताकतवर पार्टी इसे अपना हथियार बना लेती है। कुछ इन्हीं हरकतों की चर्चा करते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राहुल गांधी का नाम लिए बिना सदन में दावे के साथ कहा, ’’इस सदन में एक ऐसे नेता हैं जिन्हें 13 बार लॉन्च किया गया लेकिन 13 बार फेल हुए। एक लॉन्चिंग हमने देखी है। एक बुंदेलखंड की मां कलावती हैं, उनके घर वह गये। उनका वर्णन किया। वेदना ठीक है। बाद में उनकी सरकार 6 साल चली। उस कलावती के लिए कुछ करना तो दूर, झांकने तक नहीं गये। उन्हीं घटनाओं में एक घटना यूपी के भदोही के वेदपुर की है जहां विकलांगता से ग्रसित एक परिवार के घर जाकर राहुल गांधी आलू की पराठा खाये। लंबी-चौड़ी डींगे हांके, फिर यूपीए के 10 साल की सत्ता में उसके दुख-दर्द दूर करने की छोड़िए सवाल करने पर मोदी मीडिया कहकर चलते बने। यह तो एक बानगी है, ऐसे सैकड़ों किस्से हैं जो राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान चलाने के दावे की पोल खोलती नजर आती है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि क्या हर बार कांग्रेस द्वारा तैयार लांचिंग पैड पर ही फेल हो जाते है राहुल गांधी?
फिरहाल मणिपुर की संवेदनशील घटना को सदन में उठाकर भाजपा को घेरने की कोशिश की वह तो काबिलेतारीफ तो है लेकिन फिर हुई पुरानी हरकतों की पुर्नावुत्ति कर भाजपा को अपना खिल्ली उड़वाने का नया हथियार दे दिया है। खासकर भारत मां की हत्या की बात कहकर आम जनमानस में भी अपनी छबि खराब की है। माना मणिपुर की घटना शर्मनाक है लेकिन 1984 में हजारों सिक्खों का कांग्रेसियों द्वारा किए कत्लेआम को क्या कहेंगे? जवाब देने उतरी भापा की तेज तर्रार सांसद स्मृति ईरानी जो राहुल गांधी को उन्हीं के गढ़ में हराकर सांसद बनी, घेरने का बड़ा मुद्दा दे दिया है। शर्म आनी चाहिए कांग्रेस के उन सांसदों को जो राहुल गांधी की इस टिप्पणी पर मेजे थपथपा रहे थे। स्मृति ईरानी ने कहा कि यहां आज एक हिंदुस्तानी होने के नाते कहती हूं कि मणिपुर खंडित नहीं है, विभाजित नहीं है, मेरे देश का अभिन्न अंग है।’ मैं आज गांधी परिवार से पूछना चाहती हूं कि जम्मू-कश्मीर के विभाजन के समय कहां थे। उन्होंने कांग्रेस अनुच्छेद 370 वापस लगाने की बात करती है, भारत मां की हत्या की बात करने वाले कभी भी तालियां नहीं बजाते है। यूपीए सरकार में महिलाओं पर अत्याचार हुए, महिलाओं का बलात्कार हुआ, हिंसा की क्रूर घटनाएं सामने आई थीं। राजस्थान की लड़की के साथ गैंग रेप और फिर जलाने की घटना को लेकर राज्य में  महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कांग्रेस क्या की? कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार पर कुछ क्यों नहीं बोलती कांग्रेस। 1984 में हजारों सिक्खों के कत्लेआम पर क्यों चुप रहती है कांगेस। मणिपुर में जो हुआ शर्मनाक है। उस पर राजनीति करना उससे भी ज्यादा शर्मनाक है। उन्होंने कहा कि नरसिम्हा राव पीएम थे, तब भी मणिपुर में 700 लोग मारे गये लेकिन पीएम वहां नहीं गये।
90 के दशक में एक महिला की यूनिवर्सिटी में खुलेआम बलात्कार किया गया, काटा गया, तब कहा थे राहुल। गिरिजा टिक्कू और सरला भट्ट को इंसाफ कब मिलेगा। 84 के दौरान मुझ जैसे कुछ लोग राजधानी दिल्ली में थे। प्रणय गुप्ता ने कहा कि सिख बच्चों को नपुंसक बनाकर उनके अंग मांओं के मुंह में ठूंसे गए। त्रिलोकपुरी की 30 महिलाओं का गैंगरेप किया गया। मां के सामने बेटे को केरोसिन छिड़क कर आग लगा दी। तब कहा थे राहुल गांधी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का मूल सिद्धांत सत्ता में बने रहना है। पीएम मोदी ने भ्रष्टाचार और परिवारवाद को हटाया है। बता दें कि राहुल गांधी ने अपने भाषण में कहा था, ‘भारत एक आवाज है, भारत हमारी जनता की आवाज है, दिल की आवाज है। उस आवाज की हत्या आपने (केंद्र सरकार) मणिपुर में की। इसका मतलब भारत माता की हत्या आपने मणिपुर में की। आपने मणिपुर के लोगों को मारकर आपने भारत की हत्या की है।’ 2008 किसानों की आत्महत्या के बारे में एक भाषण में राहुल ने संसद को महाराष्ट्र के सूखे से प्रभावित विदर्भ क्षेत्र की एक विधवा कलावती के बारे में बताया। उनके ये भाषण राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनी। पत्रकारों की भीड़ कलावती के घर पहुंच गई लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं निकला। 2014 में मोदी के पीएम बनने के बाद भाजपा ने कलावती के संकट दूर किये जिसका जिक्र सदन में अमित शाह ने किया।

2014 में कांग्रेस सिर्फ 44 सीटों पर सिमट गयी
राहुल का दावा है कि वे कांग्रेस को उस तरह बदल देंगे “जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते।“ 2014 में कांग्रेस सिर्फ 44 सीटों पर सिमट गई। 2015 व 17 में कांग्रेस महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, असम और केरल में चुनाव हारने के बाद कांग्रेस नेतृत्व ही उन पर सवाल उठाने लगा। यूपी में अखिलेश यादव के साथ गठबंधन घातक रहा। मणिपुर और गोवा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी पर सरकार बनाने में विफल रही। पंजाब भी हाथ से निकल गया। भारत जोड़ो यात्रा के बाद गुजरात में सूपड़ा ही साफ हो गया। यहां जिक्र करना जरुरी है कि कांग्रेस राहुल गांधी को एक ऐसे नेता के तौर पर प्रोजेक्ट करना चाहती हैं जो न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर चमके, बल्कि उनमें विपक्ष की अगुवाई करने की लालसा भी है लेकिन ममता बनर्जी से लेकर अरविंद केजरीवाल, के. चंद्रशेखर राव से लेकर नीतीश कुमार जैसे अन्य क्षेत्रीय नेताओं की निगाह में एक समस्या से अधिक कुछ नहीं है। इस संदर्भ में खुद राहुल गांधी ही विपक्षी एकता के लिए एक बड़ी बाधा हैं। अनिल एंटनी, किरण रेड्डी और सीआर केशवन का कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आना इसलिए उसके लिए एक झटका है, क्योंकि भारत जोड़ो यात्रा के बाद यह माहौल बनाया जा रहा है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को बल मिला है। कांग्रेसी नेताओं के पार्टी छोड़ने और भाजपा में शामिल होने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसके पहले अनेक कांग्रेसी नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इनमें प्रमुख हैं, हिमंता शर्मा और ज्योतिरादित्य सिंधिया। हिंमता के पार्टी छोड़ने से कांग्रेस को न केवल असम, बल्कि पूरे पूर्वोत्तर में नुकसान हुआ। खास बात यह है कि इन सभी नेताओं ने कांग्रेस छोड़ते समय राहुल गांधी की आलोचना की।

पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहे राहुल
देखा जाय तो संसद में राहुल गांधी ऐसी पार्टी के मुखिया है जो घातक और अंतिम पतन से बस थोड़ा ही बची हुई है। राहुल खुद भी निजी पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहे हैं। खास यह है कि राहुल गांधी की यही हरकते व भाषा उन्हें हंसी का पात्र बनाती है। राहुल गांधी की यही गलत धारणा प्रतिद्वंद्वियों को फ़ायदा पहुंचाती है। पूरी पार्टी की ख़तरे में डालती है। खासकर इसलिए, क्योंकि भाजपा की प्रचार शाखा काफी मजबूत है और उनकी इन्हीं हरकतों को मजबूती से प्रसारित करती है। नि:सदेह, राहुल स्वयं स्वीकार करते हैं, इन सब से डरते नहीं हैं लेकिन सवाल यह है कि इन हरकतों से कब तक इतनी बड़ी राजनीतिक लड़ाई कैसे लड़ पाएंगे। राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी वाड्रा के पांव जमीन पर नहीं हैं। सच तो यह है कि उनकी देख—रेख में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में शून्य पर सिमट गयी थी। यह अलग बात है कि कांग्रेस 1977 के बाद राहुल की दादी इंदिरा गांधी के साथ जो राजनीतिक चमत्कार हुआ, वह 2024 के लोकसभा चुनाव में दोहराया जाएगा, का ख्वाब देख रही है लेकिन तब और अब की राजनीतिक स्थिति में बड़ा अंतर है। तब जनता पार्टी सरकार अलग-अलग विचारधारा वाली कई पार्टियों का गठबंधन थी लेकिन आज बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार काफी मजबूत है। उसके पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा लोकप्रिय नेतृत्व है जबकि कांग्रेस 1977 की स्थिति के आसपास भी नहीं है। यह इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी के करिश्मे के कारण था कि मोरार जी देसाई सरकार संकट में आ गई। तब कांग्रेस के पास संगठन भी था और कद्दावर नेता भी। इसकी तुलना में वर्तमान में कांग्रेस के पास केवल मुट्ठी भर वफादार नेता हैं।


संगठन कमजोर
दिलचस्प बात यह है कि संगठन में इन नेताओं को भी कुछ लोगों द्वारा कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं। परिणामस्वरूप संगठन कमजोर हो गया है, कांग्रेस केवल चार राज्यों- कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में शासन कर रही है। इन परिस्थितियों को देखते हुए यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस अपनी लड़ाई कैसे लड़ती है। जो नेता 2014 से कांग्रेस मामलों का प्रबंधन कर रहे हैं, वे उन फैसलों में शामिल हैं जो अंततः पार्टी को कमजोर कर रहे हैं। इन नेताओं ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधने के अलावा कुछ नहीं करने की सलाह दी है। नतीजा यह हुआ कि राज्यों में कांग्रेस सिकुड़ गई और संगठन को भारी झटका लगा। सबसे पुरानी पार्टी को कई राज्यों में चुनावी हार का सामना करना पड़ा जबकि भाजपा लगातार मजबूत होती गई। राहुल गांधी को कभी भी वास्तविकता देखने की अनुमति नहीं दी गई ताकि वे समझ सकें कि पार्टी को क्या नुकसान हो रहा है। 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद गांधी परिवार को कई गलत फैसले लेने के लिए मजबूर किया गया था। कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने का उनका निर्णय एक भूल थी। निर्णय लेने में देरी और पार्टी से प्रमुख नेताओं का पलायन कुछ ऐसे कारण हैं जिनसे कांग्रेस को नुकसान हुआ। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़, जहां इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं। अगर राहुल आंतरिक कलह पर काबू पाने में कामयाब हो जाते हैं और इन राज्यों में मुख्य भूमिका निभाते हैं तो कांग्रेस सफल हो सकती है। अगर ग्रैंड ओल्ड पार्टी इन राज्यों में जीत हासिल करती है तो 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कड़ी टक्कर देगी। शिवसेना के पतन का उदाहरण तो सबके सामने है। 2024 में जरा सी गलती कांग्रेस को भारी पड़ेगी। अंतिम फैसला राहुल गांधी और कांग्रेस को लेना है।

सिर्फ अंधमोदी विरोध

भले ही मानहानि के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बहाल होने के चलते इन दिनों राहुल गांधी चर्चा के केंद्र में हों लेकिन सच यह है कि उनका करिश्मा कम होता दिख रहा है। वह आम कांग्रेसी नेताओं को प्रेरित और प्रोत्साहित नहीं कर पा रहे हैं। शायद यही कारण है कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद भी एक के बाद एक नेता पार्टी छोड़ रहे हैं। यह सिलसिला कायम रहे तो हैरानी नहीं। राहुल गांधी कांग्रेस को मजबूत करने के नाम पर केवल अंधमोदी विरोध की राजनीति करने में लगे हुए हैं। वह यह राजनीति पिछले कई वर्षों से करते चले आ रहे हैं। हालांकि इस राजनीति से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला लेकिन उन्हें लगता है कि वह मोदी की छवि को नष्ट करने में सफल हो जाएंगे। वह मोदी की छवि पर प्रहार करने के लिए कोई न कोई मुद्दा लाते रहते हैं। जैसे पहले उन्होंने राफेल सौदे को मुद्दा बनाया था, वैसे ही अदाणी मामले को लेकर आये लेकिन सबकी हवा निकल गयी। गत दिवस शरद पवार ने इस मुद्दे की हवा निकालने का काम किया। राहुल गांधी कह रहे हैं कि वह सावरकर नहीं हैं और इसीलिए माफी नहीं मांगेंगे लेकिन सबको पता है कि उन्हें राफेल मामले में बेबुनियाद आरोप लगाने के लिए माफी मांगनी पड़ी थी। मणिपुर की घटना के सहारे वह यह भी साबित करने मे लग गए हैं कि मोदी के नेतृत्व में भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है। लेकिन स्मृति ईरानी और अमित शाह ने इसकी भी हवा निकाल दी। राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ तो खूब बोलते हैं लेकिन वह जटिल विषयों पर मुश्किल से ही कुछ कहते हैं। यदि कभी कुछ कहते भी हैं तो यह नहीं बताते कि वह जिन समस्याओं का जिक्र कर रहे हैं, उनका समाधान कैसे हो सकता है? वह यह समझने के लिए तैयार नहीं कि मोदी हटाओ जनता को आकर्षित करने का कोई एजेंडा नहीं हो सकता। यह तय है कि राहुल गांधी अपने तौर-तरीके बदलने वाले नहीं लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को इस पर विचार करना होगा कि सिर्फ राहुल के चाटुकार नेताओं को अगल-बगल रखकर वे कितने दिन अपनी राजनीतिक जमीन बचा सकते हैं। कांग्रेस के रणनीतिकार 2024 के आम चुनाव से पहले राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी की सीधी टक्कर के लिए संसद के मंच का इस्तेमाल करना चाहते हैं लेकिन कोई सफलता नहीं मिलने वाली।

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