मुंह मोड़ते संगी-साथी, अकेले पड़ते अखिलेश

 अजय कुमार

वरिष्ठ पत्रकार
समाजवादी पार्टी पिछले करीब दस वर्षो में हार का ’चैका’ लगा चुकी है। 2014 के लोकसभा चुनाव से शुरू हुआ हार का यह सिलसिला 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव के पश्चात एक बार फिर 2022 के विधानसभा में मिली हार तक जारी रहा था। हर बार सपा को भाजपा से मात खानी पड़ी। बीजेपी के समाने अखिलेश ने सभी दांव अपना चुके हैं। अब 2024 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर सपा के अध्यक्ष और पूर्व सीएम अखिलेश यादव की 'चुनावी परीक्षा’ होगी लेकिन इस बार भी अखिलेश की राह आसान नहीं लग रही है। अब तो अखिलेश के पास कोई नया ‘प्रयोग’ भी नहीं बचा है। वह कांग्रेस, बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ चुके हैं। राष्ट्रीय लोकदल और ओम प्रकाश राजभर की पार्टी का भी साथ करके देख लिया हैं लेकिन कोई भी प्रयोग उनकी हार के सिलसिले को रोक नहीं पाया। स्थिति यह हो गई है कि आज की तारीख में 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अखिलेश यादव बिल्कुल ‘तन्हा’ नजर आ रहे हैं। कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी तो समाजवादी पार्टी से दूरी बनाकर चल ही रहे हैं। इसके अलावा उसके मौजूदा साथी राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी जयंत सिंह और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओम प्रकाश राजभर भी भाजपा गठबंधन की तरफ पेंगे बढ़ा रहे हैं।
समाजावादी पार्टी यानी अखिलेश का साथ उसके सहयोगी ही नहीं छोड़ रहे हैं, बल्कि कई पुराने नेताओं ने भी किनारा कर लिया है। वह मुसलमान नेता भी समाजवादी पार्टी का साथ छोड़ रहे हैं जो कभी मुलायम सिंह को अपना रहनुमा समझते थे लेकिन अखिलेश से उनकी नाराजगी बढ़ती जा रही है। इसमें कई नेता ऐसे हैं जो मुलायम के काफी करीबी थे। बीते वर्ष अक्टूबर में तो मुस्लिम बाहुल्य जिला संभल में सपा को इतना तगड़ा झटका लगा कि उसकी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश उर्दू अकेडमी के पूर्व चेयरमैन आजम कुरैशी का सपा से ही मोहभंग हो गया है। कुरैशी ने सपा की साइकिल से उतरकर बीजेपी का दामन थाम लिया। पीएम नरेंद्र मोदी की नीतियों से प्रभावित होकर कुरैशी बीजेपी के साथ जुड़ने और मुस्लिमों को जोड़ने के लिए काम कर रहे हैं। भाजपा का दामन थामने के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर हमला बोलते हुए आजम कुरैशी तो यहां तक आरोप लगा रहे हैं कि अखिलेश अपने दफ्तर में बैठकर सिर्फ ट्वीट करने का काम करके मुसलमानों को बीजेपी से डर दिखा रहे हैं लेकिन मुसलमान हकीकत समझ गया है कि कौन मुसलमानों के साथ है और कौन उनके लिए घड़ियाली आंसू बहाता है।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मुसलमानों की नाराजगी की वजह पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि मुसलमानों को अखिलेश से सबसे बड़ी यही नाराजगी है कि सपा प्रमुख मुसलमानों के समर्थन में नहीं बोल रहे हैं। मुस्लिम वर्ग का कहना है कि मुस्लिमों को टारगेट किया जा रहा है। उन पर हो रही कार्रवाई के खिलाफ अखिलेश कोई आवाज नहीं उठा रहे हैं। यहां तक की मुसलमानों की समस्याओं और उत्पीड़न के खिलाफ अखिलेश शायद ही कभी मुंह खोलते हों। इसके अलावा समाजवादी पार्टी के गठन के समय मुलायम सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले आजम खान की अनदेखी भी अखिलेश पर भारी पड़ रही है। कुछ राजनैतिक जानकार कहते हैं कि मुसलमानों की नाराजगी बेवजह नहीं है, वह चाहते थे कि विधानसभा में आजम खान को नेता प्रतिपक्ष बनाया जाय। इसके पीछे का तर्क देते हुए मुसलमानों का कहना था कि अगर सपा चुनाव जीत जाती तो अखिलेश मुख्यमंत्री बनते लेकिन हार के बाद तो कम से कम आजम को उचित सम्मान दिया जाता। मुस्लिम नेताओं की नाराजगी के एक बड़ी वजह यह भी है। चुनाव के समय मुसलमान वोटर तो सपा के पक्ष में एकजुट हो जाते हैं लेकिन सपा के कोर यादव वोटर्स अखिलेश से किनारा कर रहे हैं। पार्टी छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं का कहना है कि चुनाव में मुस्लिमों ने एकजुट होकर समाजवादी पार्टी के लिए वोट किया लेकिन सपा के यादव वोटर्स ही पूरी तरह से उनके साथ नहीं आए। इसके चलते चुनाव में हार मिली। इसके बाद भी मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर अखिलेश का नहीं बोलना नाराजगी को बढ़ा रहा है।
पार्टी से नाराज चल रहे समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेताओं की बात की जाए तो इसमें सांसद शफीकुर्ररहमान वर्क से लेकर तमाम नेता शामिल हैं। संभल से समाजवादी पार्टी के सांसद डॉ. वर्क अपनी ही पार्टी पर हमला बोलते हुए कहते हैं कि भाजपा के कार्यों से वह संतुष्ट नहीं हैं। भाजपा सरकार मुसलमानों के हित में काम नहीं कर रही है। फिर वह तंज कसते हुए कहते हैं कि भाजपा को छोड़िए समाजवादी पार्टी ही मुसलमानों के हितों में काम नहीं कर रही। सपा के सहयोगी रालोद के प्रदेश अध्यक्ष रहे डॉ. मसूद ने 2022 में विधानसभा चुनाव नतीजे आने के कुछ दिनों बाद ही अपना इस्तीफा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को भेज दिया था। इसमें उन्होंने रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी के साथ सपा मुखिया अखिलेश यादव पर जमकर निशाना साधा था। अखिलेश को तानाशाह तक कह दिया था। सपा पर टिकट बेचने का आरोप भी लगाया था।
इसी दौरान इमरान मसूद और सहारनपुर के सपा नेता सिकंदर अली ने पार्टी छोड़ दी। पार्टी छोड़ते हुए सिकंदर ने कहा कि हमने दो दशक तक सपा में काम किया। सपा अध्यक्ष कायर की तरह पीठ दिखाने का काम कर रहे हैं। मुस्लिमों की उपेक्षा की जा रही है। सिकंदर ने कहा कि सपा के बड़े-बड़े मुस्लिम नेता जेलों में बंद हैं लेकिन अखिलेश यादव की चुप्पी पीड़ा पहुंचाने वाली है। मुलायम सिंह यूथ बिग्रेड सहारनपुर के जिला उपाध्यक्ष अदनान चौधरी भी अखिलेश यादव पर आरोप लगाते हुए पार्टी से इस्तीफा दे चुके हैं। अदनान चौधरी का कहना था कि मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार पर अखिलेश यादव की चोंच बिल्कुल बंद है।
हाल ही में सुल्तानपुर के नगर अध्यक्ष कासिम राईन ने भी अपने सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा कि अखिलेश यादव को मुसलमानों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने में कोई रुचि नहीं है। आजम खां का पूरा परिवार जेल में डाल दिया गया परंतु अखिलेश यादव नहीं बोले। नाहिद हसन को जेल में डाल दिया गया और शहजिल इस्लाम का पेट्रोल पंप गिरा दिया गया लेकिन सपा अध्यक्ष ने इस पर आवाज नहीं उठाई। सपा सरकार में दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री रहे इरशाद खान ने भी मुसलमानों की अनदेखी का आरोप लगाते हुए पार्टी से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव पर मुसलमानों की अनदेखी करने का आरोप लगाया। इरशाद ने कहा कि मुसलमान हमेशा से समाजवादी पार्टी के साथ रहा है लेकिन उसे सत्ता और संगठन में सम्मानजनक भागीदारी नहीं मिल पाई। समाजवादी पार्टी युवजनसभा बिजनौर के नूरपुर ब्लॉक अध्यक्ष मोहम्मद हमजा शेख भी पार्टी छोड़ चुके हैं। हमजा शेख ने कहा कि अखिलेश यादव मुस्लिमों से कतराते हैं। वह मुसलमानों पर हो रहे जुल्मों को देखकर भी चुप रहते हैं। मुस्लिमों को लेकर कोई आंदोलन नहीं करते। सिर्फ ट्विटर पर ही राजनीति करते हैं।
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटरों की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 90 के दशक तक उत्तर प्रदेश का मुस्लिम मतदाता कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता था। तब तक यूपी में कांगे्रस मजबूत स्थिति में रही लेकिन राम मंदिर आंदोलन के चलते मुस्लिम समुदाय कांग्रेस से दूर हुआ तो सबसे पहली पंसद मुलायम सिंह यादव के चलते सपा बनी और उसके बाद समाज ने बसपा को अहमियत दी। इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच मुस्लिम वोट बंटता रहा लेकिन 2022 के चुनाव में एकमुश्त होकर सपा के साथ गया। मुसलमानों का सपा के साथ एकजुट होने का फायदा अखिलेश यादव को मिला। सपा 47 सीटों से बढ़कर 111 सीटों पर पहुंच गई। सीएसडीएस की रिपोर्ट के मुताबिक 83 फीसदी मुस्लिम सपा के साथ थे। बसपा और कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों को भी मुसलमानों ने वोट नहीं किया था। असदुद्दीन औवैसी की पार्टी को भी मुस्लिमों ने नकार दिया था। इतनी बड़ी तादाद में मुस्लिम समुदाय ने किसी एक पार्टी को 1984 चुनाव के बाद वोट किया था। यदि 2024 के लोकसभा चुनाव में मुसलमान वोटर एकजुट रहा तो सूबे की 26 लोकसभा सीटों पर सियासी उलफेर हो सकता है। ऐसे में मायावती निकाय चुनाव के जरिए दलित-मुस्लिम समीकरण फिर से लौटी हैं तो कांग्रेस भी अपनी तरफ उन्हें लाने की कोशिश कर रही है। वहीं बीजेपी पसमांदा कार्ड के जरिए मुस्लिमों के बीच अपनी जगह बनाना चाहती है तो असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम लीडरशिप के बहाने सियासी जमीन तलाश रहे हैं। सपा की बात की जाय तो भले ही पार्टी के मुस्लिम नेता अखिलेश का साथ छोड़ रहे हों परंतु सपा प्रमुख अखिलेश यादव मुस्लिम वोटबैंक को लेकर बेफिक्र हैं। अखिलेश यादव को यकीन है कि यह वोट फिलहाल उनसे दूर नहीं जाएगा। ऐसे में देखना है कि भविष्य की सियासत में मुस्लिम मतदाता किसके साथ खड़ा नजर आता है।
उधर मुस्लिम समुदाय को लेकर उत्तर प्रदेश में की जा रही सियासत पर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओपी राजभर अखिलेश के दावे पर कहते हैं कि अब मुसलमान चार खेमे में हो गया है। बीजेपी के साथ हो गया है। समाजवादी की जब सत्ता रही तब न मुस्लिम सीएम बनाया, डिप्टी सीएम बनाया और न ही मुस्लिम को सरकारी नौकरी दिलायी।

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