कौन जानता था तब कि....?
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बचपन में माँ-बापू...दादा-दादी...संग में सब बड़े बुजुर्ग...!
मन से सिखलाते थे...
हम सबको रंगों की पहचान
कौन जानता था तब कि...?
दुनिया तो है रंगों की दूकान...
लाल-बैगनी, रंग-बिरंगे गुब्बारे
लगते थे हम सबको प्यारे-प्यारे
कौन जानता था तब कि...?
फुर्र हो जाएंगे.. या.. दग जाएंगे..
एक दिन सब सपने न्यारे-न्यारे
कमर बँधी करधनी काली-काली
और...उसमें बजते घुँघुरू...!
तब कितने अच्छे लगते थे.. और..
मन को मोहित कहते थे...
कौन जानता था तब कि...?
जीवन तो बंधन ही है...
बजेगा यहाँ हर दम डमरू...!
रंग महावर-तोता-मैना रंगवाकर
घरवाले करते थे...घर को पावन..
कौन जानता था तब कि...?
एक दिन सूना बीतेगा,
हरा-भरा इठलाता सावन...
चुपड़ी रोटी का जूठन भी..!
हाथों से खाकर...
हो जाते थे सब लोग मगन...
कौन जानता था तब कि...?
इस चुपड़ी की खातिर.. एक दिन..
सहनी होगी बहुत तपन...!
भाता था सबको... दुधमुँहे दाँतो से
हाथों की उँगली का कट जाना...
कौन जानता था तब कि...?
जीवन भर... काटेगा हमें जमाना..
लकड़ी की तिपहिया पर...!
बाँछें खिल-खिल जाती थी...
बात-बात में राजा बाबू हम थे...
सपने में आती सुन्दर परियाँ थी...
कौन जानता था तब कि...?
यह सब तो बंधन की कड़ियां थीं
प्राण बसा करते थे अपने,
माटी वाले गुल्लक में...!
गोद लिए फिरा करते थे हम सब
और... रखते इसको सिरहाने थे...
कौन जानता था तब कि...?
रुपया-पैसा-गुल्लक... ये सब तो..
माया-ममता-मोह के..अफसाने थे
पूछ रहा हूँ तुमसे मित्रों..
बालसखा हो... या.. बूढ़े पचपन...
कौन जानता था तब कि...?
एक दिन... भुला दिया जाएगा....
हम सबका प्यारा बचपन....!
हम सबका प्यारा बचपन....!
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज