छप्पर बनाने और उठाने की परंपरा हो रही खत्म
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खेतासराय(जौनपुर): मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति को हमेशा उसके जरूरत के अनुसार प्राथमिकता देनी चाहिए। पशुओं के लिए झोपड़ियों की व्यवस्था की जाती है तो कहीं बैठने के स्थान के रूप में झोपड़ी का उपयोग किया जाता है। जिसमें गांव की राजनीति के अलावा अन्य मुद्दों और चर्चा होती है। उस समय कुछ लोग देश की वर्तमान स्थिति पर भी टिप्पणी करते थे। समय बदला तो गाँवों में घर बन गए और मनुष्यों के अलावा जानवरों के लिए घर बन गए। छप्पर बनाने की परम्परा अब गायब होती जा रही है। छप्पर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार से बनाया जाता है। क्षेत्र में प्राय: एक पलिया, दो पलिया छप्पर बनाया जाता था। छप्पर बनाने वाले गाँव-गाँव में नियमित हुआ करते थे, जिनका श्रम दिहाड़ी मजदूरों से अधिक होता था। छप्पर गर्मियों में रखा जाता था। खुली और बड़े जगह में दो पलिया छप्पर लगाना आसान होता था, जो दोनों ओर से खुला रहता था। बीस से पच्चीस फुट लम्बी और बारह से पन्द्रह फुट चौड़ी छप्पर आसानी से बिछा दी जाती थी। छप्पर बनाने के लिए बाँस, अरहर की सिरसौटा, गन्ने की पत्ती आदि की आवश्यकता होती थी। छप्पर तैयार करने के लिए सबसे पहले बांस की लंबाई नापकर काटी जाती थी। गन्ने के पत्ते पर पानी छिड़का जाता था और सिरसौटे को पास की पोखरी या अन्य जगह पानी में दस से बारह घण्टा भिगोया जाता था। सभी सामग्री को मिलाकर बांस को लंबाई और चौड़ाई के हिसाब से काटा जाता था और बांस को जमीन में गाड़ दिया गया था और लंबाई और चौड़ाई के बांसों को अरहर के डंठलों में मजबूती से बांध दिया जाता था। पहले से तैयार बाँस की पट्टियों को गन्ने की पत्ती के ऊपर रखकर उसे लम्बाई और चौड़ाई दोनों तरफ से जोडकर बाँध दिया जाता था। दोनों तरफ से एक साथ रखने के लिए दो बांसों को आपस में बांधा जाता था, जिसे कइचा कहा जाता था। कहीं-कहीं दोनों ओर ईंटों की दीवार बनाकर उसके ऊपर एक बांस या सफेदा की बल्ली को रख दी जाती थी। और उसे आवश्यकतानुसार रस्सी से बांध दिया जाता है, जो आसानी से हवा और तूफान का सामना कर सके। इसी तरह, एक पलिया छप्पर को एक के सहारे रखा जाता है। मिट्टी या ईंट की दीवार, और छप्पर के बांस को दीवार पर लगाया जाता था। जिसे रस्सी से कसकर बांधा जाता था और बांस या लकड़ी के खंभे के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। छप्पर तैयार होने के बाद छप्पर रखना महत्वपूर्ण था। खेती से मुक्त लोग आसानी से अपने घरों में मिल जाते थे। छप्पर तैयार होने के बाद गांव के आसपास के लोग भी इकट्ठे हो जाते थे। दर्जनों लोग छप्पर को उठा लेते थे। उसे पकड़ कर टांग देते थे, लेकिन वजन बढ़ जाने के वजह से एक साथ जोर लगाने के लिए आवाज के माध्यम से तान भरते थे और इस तरह लोग हँसी-हँसी के बीच आसानी से उठाकर छप्पर को रख देते थे। उसके बाद छप्पर उठाने वाले लोगों को गुड़ या भेली वाली मिठाई खिलाएं बिना वापिस नहीं जाने दिया जाता था। और लोग खाकर खुश हो जाते थे। जिस दिन छप्पर बनता था, उस दिन ऐसा लगता था जैसे कोई रस्म हो रहा है। भीषण गर्मी में आग लग जाने की ज्यादातर घटनाएं होती रहती थीं, खासकर मिट्टी के घरों में आग लग जाती थी। एक आम बात है कि गांव के लोग हैंडपंप, पानी और अन्य साधनों से आग बुझाते थे। गर्मी के मौसम में कभी-कभी हवा के झोंकों से छप्पर उड़ जाते थे। कुछ लोग जरूरतमंद लोगों को बांस, अरहर के डंठल, गन्ने के पत्ते आदि देकर उनकी मदद करते थे। छप्पर बनाने लेकर रखने तक राजनीतिक व अन्य सार्वजनिक मुद्दों और दुखों के बारे में चर्चा और बहस करते थे। कुछ दशक पहले तक खेती-किसानी पर निर्भर थे। खेती को जानवरों से बचाने के लिए खेतों में मचान भी बनाते थे। लेकिन वर्तमान समय में स्थानीय क्षेत्र में छप्पर और मचान बनाने की प्रथा समाप्त होती जा रही है। छप्पर की जगह सीमेंट की करकट व टीनशेड ने ले ली है, छप्पर बनाने के कारीगर भी मिलना अब मुश्किल हो गया है। गांव का माहौल शहरीकरण हो गया है। छप्पर की जरूरत समाप्त होने साथ - साथ आपसी प्रेम और भाईचारे की मिठास भी कम होने लगी है।