Page

Pages

शनिवार, 10 जून 2023

कब स्वीकार करोगे भाई

सजना-संवरना...नक़ल उतारना,

आंखों का चमकाना-मटकाना...
गुड्डे-गुड़ियों संग सजना-संवरना,
उनका ब्याह रचाना, बारात बुलाना
खुद भी कंगन-चूड़ी पहनना...
काजल-बिंदी-रंग लगाना,
कजरारे नैनों से बातें-इशारे करना
घुंघुरू-पायल संग रिश्ता...और..
बचपन से ही नाच-गाने का शौक,
बात-बात में मुंह बिचकाना...
और...अधिकार जताने को...
भाई-बहनों से लड़ जाना....
कभी अनचाहे ही...लड़कर...
अपना हक भी जताना...
कभी खुद को दीन-हीन मान लेना
कभी खुद की ही नजर में...
खुद को हिकारत से देखना
बेटियों की स्वाभाविक आदतें हैं
गौर करें तो यही कुछ कारण हैं
जो परिवार में हम बेटियों को....
"चंचलमना" कहा जाता है...!
इसी से हमारी पहचान है...पर...
समाज का विधान तो देखो...
ससुराल जाते ही....!
जाने क्यों हम बेटियों की
हर अदाओं में...हर बात में...!
कमी ही कमी नजर आती है...
गुड्डे-गुड़िया-कंकण-गोटी तो
भूली-बिसरी बातें हो जाती हैं..
यहां मैं सजती-सँवरती तो हूँ
पर...यह सोचती भी हूँ....!
मां जैसा काजल का टीका
सासु कहाँ कभी लगाती हैं...
ननदें तो हर बात में...!
टोका-टोकी ही करतीं हैं....
बहन जैसा कहाँ...?
कभी अपने पास बुलाती हैं...
समझ में नहीं आता मुझको कि
मेरा श्रृंगार भी.. लोगों के लिए...
घूंघट के आड़ में ही...!
क्यों रखा जाता है....?
पुरुषों से तो माना ठीक है...पर...
महिलाओं को भी मेरा श्रृंगार
घूंघट उठाकर...आँख बंद कर...
क्यों दिखाया जाता है...?
अरे दुल्हन हुई तो क्या....!
मुझे देखने का अधिकार नहीं...
देखो तो सखी...!
ससुराल जाते ही...चंचलमना की
सभी आदतें बदल दी जाती हैं...
उभरे हुए पांख सभी....!
निर्मोही होकर कतर दिए जाते हैं
अति पीड़ा मन में होती है,
आह हृदय से निकलकर कहती है
आओ धरातल पर भाई,
लेने दो मुझको भी अंगड़ाई...
मैं भी हूँ तेरी ही परछाईं....यह...
कब स्वीकार करोगे भाई...!
कब स्वीकार करोगे भाई...!!
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद—कासगंज

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें