बाबा की कमाई पौत्र ने गंवाईः मिट गया आरएलडी का वजूद

 अजय कुमार

उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव से पहले राष्ट्रीय लोकदल यानी आरएलडी की मान्यता खत्म होने से छोटे चौधरी जयंत सिंह की सियासत पर ग्रहण लग गया है। साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री और दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने सहित कई सरकारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले किसान नेता चौधरी चरण सिंह के पौत्र जयंत चौधरी की राजनैतिक पारी पर यदि विश्राम लग जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जयंत चौधरी के पास आगे की सियासत चलाने के लिए अब बहुत कम विकल्प बचे हैं। अब या वह अपनी पार्टी को किसी और समान विचारधारा वाले दल में समाहित कर लें या फिर पार्टी को पुनः खड़ा के लिए संघर्ष करें जो आसान नहीं है। रालोद के मान्यता छिनने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ा उलटफेर हो सकता है। रालोद के वोटरों को अपने लिए नये विकल्प तलाशना होंगे। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के साथ बहुजन समाज पार्टी को भी फायदा हो सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत में करीब 5दशकों के बाद ऐसा मौका आया है। जब चौधरी चरण सिंह के खानदान की राजनैतिक विरासत पूरी तरह से खत्म होती नजर आ रही है।
भारत निर्वाचन आयोग ने जिस राष्ट्रीय लोकदल से राज्य स्तर की पार्टी का दर्जा छीना है, उसकी नींव पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजीत सिंह ने रखी थी। इस समय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत सिंह के पुत्र जयंत चौधरी हैं। बताते चलें कि राष्ट्रीय लोकदल नाम की पार्टी बनाने का सपना सबसे पहले अजीत सिंह के पिता पूर्व कांग्रेस नेता चौधरी चरण सिंह ने 1974 के चुनाव में देखा था। उन्होंने ही लोकदल के नाम से पार्टी की मान्यता के लिए आवेदन किया लेकिन मान्यता नहीं मिली। इसके कारण चौधरी चरण सिंह के समर्थक के उम्मीदवारों ने बीकेडी के बैनर से ही चुनाव लड़ा लेकिन चुनावी सभाओं में लोकदल का नया बैनर भी लहराया जाता था। देश के कई दिग्गज कर्पूरी ठाकुर, बीजू पटनायक आदि इस दल में साथ रहे। इस चुनाव में इगलास व गंगीरी सीट बीकेडी ने जीती। इमरजेंसी के बाद सातों सीटों पर कब्जे का इतिहास भी 1977 में चरण सिंह के नेतृत्व में रचा गया।
1985 के चुनाव में लोकदल का उदय हुआ। पार्टी के बैनर पर इगलास व खैर सीट पर जीत दर्ज हुई। इसी चुनाव में मुलायम सिंह पार्टी में शामिल हुए। जातिवाद को बढ़ावा देने के आरोप से बचने के लिए मुलायम सिंह को विरोधी दल के नेता का जिम्मा और राजेंद्र सिंह को प्रदेशाध्यक्ष का जिम्मा दिया गया। 1989 के चुनाव में पिता के देहांत के बाद अजित सिंह के हाथ पार्टी की कमान आई। यह चुनाव जनता दल के बैनर तले लड़ा गया लेकिन पार्टी अलीगढ़ में हार गई। सिर्फ एक खैर सीट जीत सकी। खुद राजेंद्र सिंह इगलास से चुनाव हार गये।
तत्पश्चात 1991 में राजेंद्र सिंह के एमएलसी बनने के बाद दोनों परिवारों में अलगाव के चलते लोकदल की विरासत को लेकर टकराव हुआ तो अजित सिंह ने जनता दल के बैनर तले प्रदेश में चुनाव लड़ा। अलीगढ़ जिले की खैर सीट पर जगवीर सिंह को जिताया। 1996 के चुनाव में मतभेद इस कदर दिखाई दिए कि अलीगढ़ की एक भी सीट अजित सिंह न जीत सके। इस चुनाव के बाद राजेंद्र सिंह सियासत से पूरी तरह दूर हो गए। दोनों परिवारों में मतभेद के बीच कोर्ट के जरिये राजेंद्र सिंह के पुत्र सुनील सिंह को लोकदल का वारिसान हक मिल गया। इसी के चलते अजित सिंह को 1996 में राष्ट्रीय लोकदल के नाम से नई पार्टी का गठन करना पड़ा लेकिन चौधरी अजीत सिंह देश-प्रदेश की सियासत में कोई खास धमाका नहीं कर पाए। उनका सारा ध्यान जाट वोटरों पर लगा रहता था। अकेले दम पर चुनाव लड़ने से भी चौधरी अजीत सिंह बचते रहते थे। कुल मिलाकर चौधरी चरण सिंह की मौत के बाद उनके पुत्र अजीत सिंह और बाद में चरण सिंह के पौत्र जयंत सिंह अपने बाप-दादा की सियासत को बचा नहीं पाये।
बात चौधरी चरण सिंह के सियासी रूतबे की कि जाए तो एक जाट परिवार में जन्मे चरण सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन के हिस्से के रूप में राजनीति में प्रवेश किया।
आजादी के बाद 1950 के दशक में भारतीय किसानों की भलाई के लिए नेहरू की समाजवादी और सामूहिक भूमि उपयोग नीतियों के खिलाफ लड़ाई का विरोध करने और जीतने के लिए वे विशेष रूप से उल्लेखनीय हो गए। वह सभी ग्रामीण और कृषक समुदायों के बीच बहुत लोकप्रिय थे, उनका राजनीतिक आधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा था । 1929 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। उन्होंने 1937 से संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) राज्य विधानसभा में सेवा की।
फरवरी 1937 में वे 34 वर्ष की आयु में उत्तर प्रदेश (संयुक्त प्रांत) की विधान सभा के लिए चुने गए। 1938 में उन्होंने विधानसभा में एक कृषि उपज बाजार विधेयक पेश किया जो 31 मार्च के दिल्ली के हिंदुस्तान टाइम्स के अंक में प्रकाशित हुआ था। 1938, विधेयक का उद्देश्य व्यापारियों की लोलुपता के खिलाफ किसानों के हितों की रक्षा करना था। इस विधेयक को भारत, पंजाब के अधिकांश राज्यों द्वारा अपनाया गया था1940 में ऐसा करने वाला वह पहला राज्य था। इस प्रकार उनका राजनीतिक जीवन काश्तकारों के अधिकारों का समर्थन करते हुए कांग्रेस रैंकों के माध्यम से शुरू हुआ। प्रारंभिक कांग्रेस नीति के खिलाफ काम करते हुए और ज़बरदस्त ज़मींदार के प्रभाव से लड़ते हुए उन्होंने भूमि के किसानों के स्वामित्व के लिए समर्थन जुटाया, सुधारों को लागू किया और किसानों पर कर वृद्धि को रोका। उन्होंने किसानों को एक आक्रामक राजनीतिक ताकत बनाने का काम किया।
चौधरी चरण सिंह ने ब्रिटिश सरकार से स्वतंत्रता के लिए अहिंसक संघर्ष में महात्मा गांधी का अनुसरण किया और कई बार कैद हुए। 1930 में उन्हें नमक कानून के उल्लंघन के लिए अंग्रेजों द्वारा 6 महीने के लिए जेल भेज दिया गया था। व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन के लिए उन्हें नवंबर 1940 में एक साल के लिए फिर से जेल में डाल दिया गया। अगस्त 1942 में उन्हें डीआईआर के तहत अंग्रेजों द्वारा फिर से जेल में डाल दिया गया और नवंबर 1943 में रिहा कर दिया गया। महात्मा गांधी के साथ वे स्वामी दयानंद, कबीर और सरदार पटेल से भी प्रभावित थे। 1952 में चौधरी चरण सिंह स्वतंत्र भारत में सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के राजस्व मंत्री बने। वह जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने और लागू करने के लिए समर्पित थे जिसके वे प्रमुख वास्तुकार थे। प्रमुख राजनीतिक वैज्ञानिकों द्वारा यह तर्क दिया गया है कि भारतीय लोकतंत्र की सफलता इस सुधार के सफल कार्यान्वयन में निहित है। दूसरी ओर पाकिस्तान में समान सुधार नहीं हुए और शक्ति कुछ शक्तिशाली जमींदारों या जमींदारों के बीच केंद्रित है जो अपनी भूमि को अपनी निजी जागीर के रूप में चलाते हैं और अपने प्रभाव का उपयोग अपने धन को बढ़ाने के लिए करते हैं। चरण सिंह ने सोवियत शैली के आर्थिक सुधारों पर नेहरू का विरोध किया। चरण सिंह का मत था कि सहकारी फार्म भारत में सफल नहीं होंगे। एक किसान का बेटा होने के नाते, चरण सिंह ने कहा कि एक किसान बने रहने में किसान के लिए स्वामित्व का अधिकार महत्वपूर्ण था। नेहरू की आर्थिक नीति की खुली आलोचना के कारण चरण सिंह का राजनीतिक जीवन प्रभावित हुआ। 1950 के दशक में भारत में नेहरू से कोई सवाल नहीं करता था।
1967 में चरण सिंह ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और अपना एक नया राजनीतिक दल बनाया जिसे भारतीय क्रांति दल कहा गया। महत्वपूर्ण रूप से चरण सिंह ने 1967 में राज नारायण और राम मनोहर लोहिया के प्रत्यक्ष समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पदभार संभाला। 1970 में कांग्रेस पार्टी के दो भागों में विभाजित होने के बाद उन्होंने बाद में 1970 में कांग्रेस पार्टी के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभाला लेकिन 1975 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की स्थिति घोषित की और अपने सभी राजनीतिक विरोधियों चरण सिंह सहित अन्य विपक्षी नेताओं को जेल की सजा सुनाई। 1977 के आम चुनावों में भारतीय जनता ने उन्हें वोट देकर बाहर कर दिया और विपक्षी पार्टी, जिसके चौधरी चरण सिंह एक वरिष्ठ नेता थे सत्ता में आई। लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर जेल से रिहा होने के बाद चरण सिंह ने मोरार जी देसाई की जनता पार्टी के साथ गठित राजनीतिक दल का विलय कर दिया। चरण सिंह ने लोकसभा चुनाव में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता सरकार में गृह मंत्री, उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में कार्य किया। 28 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बने। चौधरी का कार्यकाल बहुत छोटा करीब 6 माह का रहा लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद चरण सिंह ने किसानों व आम जनता के हित में कई कदम उठाये।

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