नहीं रहे "उखड़ा हुआ शहर" के लेखक लालसा लाल तरंग
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वाराणसी। बहुत ही दुखद ख़बर है ! जाने माने साहित्यकार और प्रगतिशील लेखक संघ,उ.प्र. की राज्य कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष मण्डल के सदस्य एवं प्रलेस- आजमगढ़ इकाई के अध्यक्ष लालसा लाल तरंग अब नहीं रहे। उन्हें दो दिन पूर्व कोरोना-संक्रमण के कारण आजमगढ़ के पीजीआई, चक्रपानपुर में भर्ती कराया गया था। कल शाम तक वे सुधार पर थे। किंतु आज सुबह से उनकी तबीयत तेजी से बिगड़ने लगी और दोपहर ढाई बजे के करीब उनका निधन हो गया।
प्रगतिशील लेखक संघ,उ.प्र. के महासचिव डॉ संजय श्रीवास्तव ने बताया कि तरंग जी का प्रगतिशील आंदोलन के लिए विशेष योगदान रहा। आज आजमगढ़ का साहित्य-समाज उनके बिना सूना हो गया है। ऊपर से कठोर किंतु अंदर से उतने ही कोमल स्वभाव के तरंगजी लगभग तिरासी साल की उम्र में भी बेहद सक्रिय और ऊर्जावान व्यक्ति रहे। वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और संघर्षशील व्यक्तित्व के लिए जाने जाते रहे। लंबे समय तक बिहार में सेवारत रहते हुए कर्मचारी संगठन और प्रलेस की सक्रियता के लिए उन्हें जाना गया। बेगूसराय और समस्तीपुर प्रलेस में अठारह साल तक अपना योगदान देने के बाद 2006 से अभी तक वे उस आजमगढ़ में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष थे। बाबा नागार्जुन का विशेष सान्निध्य उन्हें मिला था। कविता और आलोचना के क्षेत्र में उनकी समान गति थी। प्रकृतित: गीतकार तरंगजी अपनी रचना-संस्कृति में भी प्रतिबद्ध व सजग दिखाई देते हैं। वे बदलाव के लिए लिखते और जीते थे।उनकी अनेक पुस्तकें हैं: केवी अदद उठे हाथ, सुबह का पैगाम, उखड़ा हुआ शहर(कहानी संग्रह), गुम हवा कुछ कहेगी, हथेली पर अंगारे(गीत-नवगीत संग्रह), कल की सुबह अपनी(ग़ज़ल संग्रह)प्रगीतात्मकता और मानवीय सरोकार, विचार विमर्श।सम्प्रति मुक्तिबोध और धूमिल पर उनकी पुस्तक तैयार है जिसे वे प्रकाशित करने के लिए प्रयासरत थे। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन का भी दायित्व निर्वहन किया।
तरंगजी की राजनीतिक चेतना का प्रभाव हम उनसे बातचीत में बराबर देखते थे। तरंगजी मेरे लिए अभिभावक थे और प्रलेस के कामकाज में महत्वपूर्ण सलाहकार भी। आज उनके जाने की ख़बर ने मुझे झकझोर दिया है। उनके जाने से जो रिक्तता आई है, वह कभी भरी नहीं जा सकेगी।