स्मृति शेष-माता प्रसाद जीराजनीति और साहित्य के महान व्यक्तित्व का महाप्रयाण
सरलता सहजता और सादगी के प्रतिमूर्ति पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद जी नहीं रहे। जनपद जौनपुर के राजनैतिक और साहित्य विरासत का एक महान शख्स ने आज जौनपुर को अलविदा कह दिया। महामहिम जैसे शब्द का महारूप को उन्होंने कभी नहीं जिया। उन्होंने हमेशा सादगी और ईमानदारी को अपना साथी बनाया। पद के घमंड से दूर रहे। जीवन मे तमाम पदों पर रहते हुए भी वह बेदाग व्यक्तित्व बने रहे। कभी रिक्शे से कभी पैदल तो कभी किसी की स्कूटर मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ कर भी वह अपने गंतव्य तक पहुँच जाते थे।
वह एक विस्तृत और व्यापक संचेतना के संवेदनशील व्यक्तित्व थे। राजनीतिक संरचना के साथ उन्होंने वर्तमान सामाजिक सांस्कृतिक जीवन के उन दुखते संदर्भों का गहराई से अनुभव किया था जिसने साम्प्रतिक भारतीय समाज को आज भीतर ही भीतर जर्जरित करते हुए टूटने के कागार पर ला खड़ा किया है। बड़े पद उनके विराट व्यक्तित्व और सोच के आगे छोटे लगते थे। जीवन मे घमंड ने उनको स्पर्श नही कर पाया। गांधी की टोपी और झक सफेद कुर्ता धोती पहनावा सदा उनकी पहचान रहा। पहनावा उनका जितना सफेद रहा उतना ही उनका व्यक्तित्व और कार्य भी साफ सुथरा था। व्यक्तिगत जीवन व्यक्तिगत जीवन ही वही धवल व्यवहार और कार्य रहा।
माता प्रसाद जी का जन्म मछली शहर तहसील के कजियाना मोहल्ले में 11 अक्टूबर 1925 को हुआ था बड़ी ही कठिन परिस्थितियों में 9 वर्ष की अवस्था में अपनी शिक्षा प्रारंभ की। हिंदी मिडिल की परीक्षा सन 1942 में प्रथम श्रेणी में तथा उर्दू मिडिल की परीक्षा 1943 में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। एचटीसी की ट्रेनिंग करते समय ही उन्होंने "कोविद" परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी वर्ष 1946 में अध्यापक के रूप में नियुक्त हो गए थे। अध्ययन शील और सतत ज्ञान पिपासु अध्ययन अध्यापन के साथ निरंतर चलता रहा। इसी के फलस्वरूप उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा 1952 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। कालांतर में अपने "साहित्य रत्न" (राजनीति)और साहित्य रत्न (साहित्य)की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। साहित्य और राजनीति इस अध्ययन ने माता प्रसाद जी की चेतना को इस सीमा पर जागृत किया कि राजनीति में रहते हुए भी वह साहित्य के सृजन में संलग्न रहे। 1957 में सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके कार्यक्षेत्र और पदभार बढ़ने लगा। 1957 से 1977 तक वह निरंतर शाहगंज विधानसभा से सदस्य निर्वाचित होते रहे। 1980 से 6 जुलाई 1992 तक लगातार दो बार विधान परिषद के सदस्य रहे। 31 जुलाई 1988 से नवंबर 1989 तक सरकार में कैबिनेट मंत्री (राजस्व) थे। सामाजिक जीवन मे सक्रियता के साथ वह अनेक पदों को सार्थक करते रहे। संचालक मंडल एच वी टी आई कानपुर तथा उत्तर प्रदेश के दलित वर्ग संघ प्रथम वेतन आयोग सदस्य (1971-1973) आवास विकास परिषद लीगल एण्ड परामर्श बोर्ड तथा अल्पसंख्यक आयोग के सदस्य रहे थे।अपनी साहित्यिक अभिरुचि के कारण वह दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली के उपाध्यक्ष, जनपद हिंदी साहित्य सम्मेलन जौनपुर के अध्यक्ष डॉ आंबेडकर फ़िल्म पांडुलिपि समिति भारत सरकार 1994 के अध्यक्ष रहे थे।
समस्त पदों को निष्ठापूर्वक निर्वाह करने वाले ईमानदार कर्मठ माता प्रसाद जी को 21 अक्टूबर 1993 को अरुणाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाये गए। राज्यपाल पद पर रहते हुए भी वह कभी पद के विराट प्रोटोकॉल से दूर ही रहे। उनका राजभवन में अधिकारियों और कर्मचारियों के प्रति आत्मीयता का व्यवहार देश मे चर्चा का विषय रहा। पूर्वोत्तर राज्यों में उन्होंने अनेक बुनियादी सुविधाओं को पहुँचाने लिए तत्कालीन भारत सरकार का ध्यान भी आकृष्ट कराया था। राजभवन उस समय अरुणाचल प्रदेश के आम जन के लिए भी वह खोल रखे थे। सरलता से लोग अपने महामहिम राज्यपाल से मिल लेते थे।
राजनीतिक व्यस्तताओं के साथ ही उन्होंने साहित्य सृजन का की यात्रा निरंतर जारी रखी थी। उन्होंने दलित समाज संबंधी गीत (1949),अछूत का बेटा (1972), धर्म के नाम पर धोखा (1979),एकलव्य (1981) भीम शतक (1984 ) हिंदी काव्य में दलित काव्य धारा (1993) राजनीति की अर्द्ध सतसई (1993) उत्तर प्रदेश के दलित जातियों का दस्तावेज (1995) झलकारी बाई (1993) दिग्विजयी रावण, प्रतिशोध, अरुणाचल की मनोरम झांकी, दलित जीवन के खट्टे मीठे अनुभव उनकी आत्मकथा जैसी रचनाओं को आम जनमानस तक पहुँचाया। श्री माताप्रसाद जी रचनाशीलता को कला से अधिक लोकहित का माध्यम मानते थे। उन्होंने जन जागरण के लिए विपुल साहित्य की रचना की। उनका विश्वास था कि दलित समस्या को भारतीयों द्वंद्वों की अपेक्षा हृदय परिवर्तन और विवेकपूर्ण गहरी सोच को व्यवहार में जागृत करने के रूप में साबित किया जा सकता है।
बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी माता प्रसाद जी को अनेक बार सम्मानित एवं अलंकृत किया गया था। जिसमें उन्हें 1987 में डॉक्टर अंबेडकर अवार्ड 1988 में दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा राष्ट्रीय सम्मान 1994 हिंदी प्रचारिणी सभा कानपुर द्वारा कीर्ति भारती साहित्यकार अभिनंदन समिति मथुरा द्वारा राष्ट्रभाषा रत्न तथा साहित्य भूषण सम्मान तथा 1994 में नेशनल प्रेस इंडिया द्वारा डॉक्टर अंबेडकर कीर्ति सम्मान 1996 में पंडित जवाहरलाल नेहरू एक्सीलेंट एवार्ड मानव सेवा शिखर सम्मान से सम्मानित किया जा चुका था।
माता प्रसाद ने कुटिया से राजभवन तक का सफर किया था। मानवीय संवेदना को संजोए रखने के साथ सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता के लिए उन्होंने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया। आज वो नही रहे पर उनके बेदाग व्यक्तित्व सादगी और रचनात्मकता हम सबको आने वाली पीढ़ी के लिए सन्देश देता रहेगा। उनको याद करते हुए जौनपुर के जनमानस की आँखे नम है। 96 वर्ष की अवस्था मे महाप्रयाण हुआ। भरपूर जीवन जिया। गरीबी को भी जिया और महामहिम के भी पद को धारण किया। जौनपुर के लोगों ने एक महामहिम पद को धारित करने के बाद सादगी से पैदल और रिक्शे पर चलने वाले व्यक्ति को अपनी आँखों से देखा है। आज वह व्यक्ति चला गया पर जौनपुर को एक इतिहास का वह किताब दे गया जिसमें सादगी शालीनता सहजता और आत्मीयता जैसे शब्दों की विस्तार से वर्णन है। उसे लोग पढ़े आत्मसात करें और उस जीवन को जिये।
भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ मधुकर तिवारी