अधेरे वक्त में भी गीत गाये जायेंगे
https://www.shirazehind.com/2020/05/blog-post_400.html
जौनपुर। प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपने संदेश में दो बार कहा कि डॉक्टरों, अस्पताल के कर्मचारियों, सरकारी अफसरों आदि तरह मीडिया भी आवश्यक सेवाओं में शामिल है. मीडिया को आवश्यक सेवाओं में शामिल करना एक सुखद बदलाव है. अब तक जिन दशकों में पत्रकार काम कर रहे थे, उसमें पत्रकारों को महामारी जैसा माना जाता था. लेकिन पत्रकारों को खुद यकीन होना चाहिए कि हम महत्वपूर्ण हैं और एक आवश्यक सेवा देते हैं. हमारा स्वाभिमान, हमारी शान, हमारा नियति बोध, सब कुछ इस एक आस्था से निकलता है कि हम अहमियत रखते हैं. सत्ता से पत्रकारों का मतभेद है, और हमेशा रहेगा. और यह किसे नहीं होता, किस लोकतंत्र में नहीं होता?
इंदिरा गांधी के सामने जो चुनौती 1974 में थी वही मोदी के समक्ष भी है पर आज देश बदल चुका है
जरा डोनाल्ड ट्रंप पर गौर कीजिए, जो अमेरिका के सबसे अच्छे पत्रकारों और ग्लोबल मीडिया के महान संस्थानों की हमेशा लानत-मलामत करते रहते हैं. या बीबीसी से प्रेरणा लीजिए, जिस पर मारग्रेट थैचर ने फाकलैंड युद्ध के बीच में ही हमला किया था कि वह देशभक्त नहीं है और दोनों पक्षों को एक ही तराजू पर तौल रहा है. इसके जवाब में बीबीसी रेडियो के प्रमुख रिचर्ड फ्रांसिस ने सीधा जवाब दिया था कि ‘बीबीसी को मौजूदा कंजरवेटिव ब्रिटिश सरकार से देशभक्ति का कोई सबक सीखने की जरूरत नहीं है. पोर्ट्समाउथ में जो विधवा हुई और ब्यूनस आयर्स में जो विधवा हुई, दोनों में कोई फर्क नहीं है.’
पत्रकार सरकारों से सवाल करते रहेंगे, उन्हें परेशान करते रहेंगे. वे पत्रकार पर हमला करेंगी. यह खेल चलता रहेगा. यह टकराव बदलते निज़ाम के मुताबिक तीखा और तल्ख होता रहेगा. लेकिन आज जो आपदा आई है उसमें पत्रकार भाईयों इस तरह की चिंताओं को परे कर देना चाहिए. इसलिए, कमर कस कर तैयार हो जाइए. यह कोरोना युग पत्रकारिता के लिए ऐसी चुनौती लेकर आया है जैसी उसे पहले कभी नहीं मिली थी.
अश्वनी कुमार सिंह (स्वतंत्र लेखन)
इंदिरा गांधी के सामने जो चुनौती 1974 में थी वही मोदी के समक्ष भी है पर आज देश बदल चुका है
जरा डोनाल्ड ट्रंप पर गौर कीजिए, जो अमेरिका के सबसे अच्छे पत्रकारों और ग्लोबल मीडिया के महान संस्थानों की हमेशा लानत-मलामत करते रहते हैं. या बीबीसी से प्रेरणा लीजिए, जिस पर मारग्रेट थैचर ने फाकलैंड युद्ध के बीच में ही हमला किया था कि वह देशभक्त नहीं है और दोनों पक्षों को एक ही तराजू पर तौल रहा है. इसके जवाब में बीबीसी रेडियो के प्रमुख रिचर्ड फ्रांसिस ने सीधा जवाब दिया था कि ‘बीबीसी को मौजूदा कंजरवेटिव ब्रिटिश सरकार से देशभक्ति का कोई सबक सीखने की जरूरत नहीं है. पोर्ट्समाउथ में जो विधवा हुई और ब्यूनस आयर्स में जो विधवा हुई, दोनों में कोई फर्क नहीं है.’
पत्रकार सरकारों से सवाल करते रहेंगे, उन्हें परेशान करते रहेंगे. वे पत्रकार पर हमला करेंगी. यह खेल चलता रहेगा. यह टकराव बदलते निज़ाम के मुताबिक तीखा और तल्ख होता रहेगा. लेकिन आज जो आपदा आई है उसमें पत्रकार भाईयों इस तरह की चिंताओं को परे कर देना चाहिए. इसलिए, कमर कस कर तैयार हो जाइए. यह कोरोना युग पत्रकारिता के लिए ऐसी चुनौती लेकर आया है जैसी उसे पहले कभी नहीं मिली थी.
अश्वनी कुमार सिंह (स्वतंत्र लेखन)