हिन्दी पत्रकारिता में रज्जू बाबू और प्रभाष जोशी का दौर नही रहा- विकास तिवारी

आज हिन्दी के पहले अखबार के प्रकाशन को 194 वर्ष हो गये है वह 30 मई का ही दिन था, जब देश का पहला हिन्दी अखबार 'उदंत मार्तण्ड' प्रकाशित हुआ। इसी दिन को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। 30 मई 1826 ई0 को कोलकाता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में "उदंत मार्तण्ड" नामक अखबार प्रकाशित होता है।इस पत्र में ब्रज और खड़ीबोली दोनो के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता था जिसे इस पत्र के संचालक व संपादक जुगल किशोर शुक्ल "मध्यदेशीय भाषा" कहते थे।1826 से लेकर आज इस अवधि में कई समाचार-पत्र शुरू हुए, उनमें से कई बन्द भी हुए, लेकिन उस समय शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। लेकिन,अब उद्देश्य पत्रकारिता से ज्यादा व्यावसायिक हो गया है।जिस दौर में अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकलते थे, किन्तु हिन्दी में कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था उस समय हिन्दी समाचार पत्र "उदंत मार्तण्ड" का उदय होता है पुस्तकाकार में छपने वाले इस पत्र के 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए और करीब डेढ़ साल बाद ही दिसंबर 1827 में इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा।उस समय बिना किसी मदद के अखबार निकालना लगभग मुश्किल ही था,परिणामत: आर्थिक अभावों के कारण यह पत्र अपने प्रकाशन को नियमित नहीं रख सका।
हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले पंडित जुगल किशोर शुक्ल का हिंदी पत्रकारिता जगत में विशेष सम्मान है।जुगल किशोर शुक्ल वकील भी थे और कानपुर के रहने वाले थे। लेकिन उस समय औपनिवेशिक ब्रिटिश भारत में उन्होंने कलकत्ता को अपनी कर्मस्थली बनाया। परतंत्र भारत में हिंदुस्तानियों के हक की बात करना बहुत बड़ी चुनौती बन चुका था। इसी के लिए उन्होंने कलकत्ता के बड़ा बाजार इलाके से साप्ताहिक 'उदंत मार्तण्ड' का प्रकाशन शुरू किया। यह साप्ताहिक अखबार हर हफ्ते मंगलवार को पाठकों तक पहुंचता था।हिंदी प्रिंट पत्रकारिता आज किस मोड़ पर खड़ी है, यह किसी से ‍छिपा हुआ नहीं है। उसे अपनी जमात के लोगों से तो लोहा लेना पड़ रहा है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौतियां भी उसके सामने हैं। ऐसे में यह काम और मुश्किल हो जाता है।हिंदी पत्रकारिता ने जिस 'शीर्ष' को स्पर्श किया था, वह बात अब कहीं नजर नहीं आती। इसकी तीन वजह हो सकती हैं, पहली अखबारों की अंधी दौड़, दूसरा व्यावसायिक दृष्टिकोण और तीसरी समर्पण की भावना का अभाव। पहले अखबार समाज का दर्पण माने जाते थे, पत्रकारिता मिशन होती थी, लेकिन अब इस पर पूरी तरह से व्यावसायिकता हावी है। हिंदी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर उर्फ रज्जू बाबू और प्रभाष जोशी जैसे संपादक का भी दौर रहा हैं, जिन्होंने अपनी कलम से न केवल अपने अपने अखबारों को शीर्ष पर पहुंचाया,बल्कि अंग्रेजी व अन्य भाषा में प्रकाशित होने वाले नामचीन अखबारों को भी कड़ी टक्कर दी।आज वे हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनके कार्यकाल में हिन्दी पत्रकारिता ने जिस सम्मान को स्पर्श किया, वह अब कहीं देखने को नहीं मिलता। दरअसल, अब के संपादकों की कलम मालिकों के हाथ से चलती। हिन्दी पत्रकारिता आज कहां है, इस पर ‍निश्चित ही गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है ।

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