पूंजीवाद, बाज़ारवाद के बदलते प्रतीकों की वजह से हिंदी पत्रकारिता कुछ प्रभावित हुई

अनिल अस्थाना , बरिष्ठ पत्रकार
पूरे विश्व में जब अंग्रेजी पत्रकारिता का परचम शिखर पर था और भारत मे गिने चुने बंगला, फ़ारसी कुछ अन्य भाषाओं के समाचार पत्रों का ही बोल बाला था तब सन 1826 ई में हिंदी पत्रकारिता के ध्वज वाहक के रूप जुगल किशोर शुक्ल ने कमान संभालने का प्रयास किया और 30 मई 1826 को विश्व का पहला हिन्दी साप्ताहिक समाचार पत्र  " उदन्त मार्तण्ड" का प्रकाशन प्रारम्भ कर हिन्दी पत्रकरिता की आधारशिला रखी। इसी दिन को हम सभी हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में जानते और मानते है। यद्दपि उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन संसाधनों के अभाव में लम्बे समय तक नही चल सका किन्तु इस हिंदी साप्ताहिक ने हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला इतनी मजबूत रखी कि आज भारत मे सबसे अधिक विशेषकर उत्तर प्रदेश में  हिन्दी समाचार पत्र के पाठक है। सूचना क्रांति के इस दौर में भी हिंदी पत्रकारिता देश, दुनिया,  समाज को दर्पण दिखाने के साथ साथ विश्वस्नीयता में भी सबसे अधिक है। परन्तु आज पूंजीवाद, बाज़ारवाद के बदलते प्रतीकों की वजह से हिंदी पत्रकारिता कुछ प्रभावित हुई है किन्तु  इसके स्तम्भ को कोई आंच नही आई।
 आज के परिवेश में हिन्दी पत्रकारिता बाज़ारवाद और पूँजीवाद के आगे इतनी बेबस है कि अपना आत्म विश्लेषण का अवसर ही नही , नवीन व्यवस्था के सांचे में ढालने की होड़ और दौड़ में बने रहने की चुनौतियां ही उसका शोषण करती दिखाई देती है। प्रजातन्त्र में पत्रकारिता राजतन्त्र काल की पत्रकारिता से भी दुरूह कार्य हो चुका है, ब्यूरो क्रेसी और डेमोक्रेसी के  बीच का प्रबन्धन ही हिन्दी पत्रकारिता की सबसे बड़ी चुनौतियों में एक है सबकुछ के बाद भी  भारत मेपत्रकारिता जगत की  रीढ़ हिन्दी पत्रकारिता है ।  ब्रजेन्द्र अवस्थी की  कविता की कुछ पंक्तियां न्यायसंगत लगती है जो साझा कर रहा हूं ---- जो तम का समर्थक हो उसे रवि न कहूंगा, जिसकी क़लम बिकी हो उसे कवि न कहूंगा ,। यह मेरा व्यक्तिगत विचार है। अनिल अस्थाना

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