काश कोई हमारा दर्द भी समझा पाता
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फाइल फोटो |
बताते हैं कि स्कूल में हम लोग 25 रूपये से डेढ़ सौ रूपये प्रतिमाह की फीस लेकर विद्यालय चलाते हैं, जिसमें से कुछ बच्चों की शुल्क बाकी ही रहता है। फिर भी हम लोग अपना जीवन यापन करने के लिए पढ़े लिखे व्यक्तियों को स्कूल में अध्यापक नियुक्त कर उन्हें तीन से पॉच हजार रुपए प्रतिमाह पारिश्रमिक देते हैं, वे अध्यापक की इज्जत मिलने के कारण ही इतनी कम धनराशि पर कार्य करना स्वीकार करते हैं, परन्तु आज की स्थिति यह है कि कोरोना वायरस के चलते स्कूल बन्द होने से वह न ही किसी से कुछ कह सकते हैं, और कुछ मांग भी नहीं सकते, क्योंकि वे यह अच्छी तरह से जान रहे है कि स्कूल बंद होने के कारण फीस नहीं आ रही है, जिससे कि अध्यापकों को उनका पारिश्रमिक दिया जा सके। इस आर्थिक समस्या पर कई प्रबंधकों ने अपनी चिन्तायें व्यक्त की और सरकार से गुहार लगाई कि हम स्कूल प्रबन्धकों को भी इस बन्दी में आर्थिक मदद के साथ-साथ आवश्यक सुविधायें मुहैया करायी जाये। इस सम्बन्ध में जब अध्यापकों से वार्ता की गई तो उन्होंने बताया कि जब स्कूल बंद है तो शुल्क आने का कोई सवाल ही नहीं है। हम लोग तो दिहाड़ी मजदूरों से भी गए गुजरे हो गए हैं। दिहाड़ी मजदूरों को सरकार तो कुछ दे भी रही है, लेकिन हम लोगों का क्या होगा, यह भगवान ही जानता है। अध्यापकों ने बताया कि हम लोग स्कूल के मैनेजमेंट को भंलिभॉति जानते है। यदि समय पर बच्चों ने शुल्क जमा कर दिया तो पारिश्रमिक मिल जाता है और अगर शुल्क नहीं आया तो परिजनों के भरष पोषण हेतु आर्थिक व्यवस्था के लिए परेशान होना पड़ता है। हम लोग जिस भी विद्यालय में पढ़ाते हैं, उसमें मध्य वर्गीय परिवार से भी कम आय वाले बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं, किन्तु सम्मान प्राप्त होने के कारण हम लोग कम वेतन में भी बच्चों को शिक्षित करते हैं। इस समय कोरोना संकट के कारण हमलोगों के समक्ष खाने के लाले पड़े हुए हैं। कुछ विद्यालय तो अपनी गृृह परीक्षा करा चुके हैं और कुछ लोग परीक्षा कराने के लिए पेपर आदि भी खरीद लिया है ताकि लाकडाउन समाप्त होने के बाद बच्चों से परीक्षा फीस प्राप्त कर उनकी परीक्षा करायी जा सके तथा टीचरों को उनके पारिश्रमिक का भुगतान किया जा सके, किन्तु सरकार द्वारा परीक्षा फीस वसूलने की मनाही किये जाने से स्पष्ट है कि हमलोगों का पारिश्रमिक डूब जायेगा।