मोटे अनाजों के प्रति सरकार बरत रही उपेक्षा

जौनपुर। कभी जौ, ज्वार, बाजरा, मक्का, व सांवा जैसे मोटे अनाज को गरीबों का भोजन माना जाता था। ये अनाज हमारे खान-पान का अहम हिस्सा हुआ करते थे लेकिन अब ये हमारी थालियों से गायब हैं। खेत-खलिहानों से इन अन्नों के गायब होने का परिणाम रहा कि भोजन से पोषक तत्व ही गायब हो गए। समय बदला तो लोगों का नजरिया भी बदलने लगा। आज के दौर में गरीबों का ये मोटा अनाज अमीरों के लिए स्टेटस सिबल बन गया है। ऐसे पोषक आहारों की पूरी दुनिया में मांग बढ़ गई है। हालांकि मोटे अनाज के उत्पादन की ओर किसानों का रुझान दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है और अब यह सीमित क्षेत्रों में ही उत्पादित किया जाने लगा है। जिले के कुछ क्षेत्रों में किसान थोड़ा ही सही लेकिन मोटे अनाज की खेती जरुर करते हैं। ऐसा करने के पीछे एक वजह विकल्प हीनता भी है। कम बरसात से किसानों को खरीफ की फसल के सूखे का शिकार होना पड़ता है। लिहाजा चाह कर भी धान की खेती अधिक मात्रा में नहीं कर पाते।   कीचड़युक्त मिट्टी में ही बिना जोताई छिड़काव विधि से जौ, कोदो, सांवा व अजवाइन की बोआई कर दी जाती है। इसमें उनका लागत तो कम आता है लेकिन उत्पादन अच्छा मिल जाती है। उसी मोटे अनाज को किसान बाजारों में बेच कर अच्छी कमाई भी कर लेते हैं। इससे दो फायदे होते हैं। एक तो उनके घरों में पौष्टिक आहार वाले अन्न मौजूद रहते हैं साथ ही वे दूसरों को भी ये अनाज प्रदान करने में सहायक हो जाते हैं। वैसे  किसानों को इन मोटे अनाजों के प्रति सरकार की उपेक्षा काफी खल रहा है। बेशक केन्द्र सरकार पिछले दो सालों से इस प्रकार के अनाजों पर खासा ध्यान दे रही है। पहली बार साल 2018 में ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो व सांवा जैसे मोटे अनाजों का समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया लेकिन ये अभी भी नाकाफी साबित हो रहा है। सरकार को इन किसानों की दशा सुधारने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने की आवश्यकता है। यदि इन फसलों को भी गेहूं और धान की तर्ज पर सब्सिडी दी जाए मोटे अनाज को बढ़ावा मिलेगा। यही नहीं पौष्टिक आहार की कमी से उत्पन्न होने वाले डायबिटीज, ब्लड शूगर व कब्जियत जैसी बीमारियां से भी निजात पाया जा सकता है। दर असल   मोटा अनाज आंतों को एक्सरसाइज कराता है लिहाजा पेट में कब्ज नहीं होती।

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