क्या यही चौथा स्तम्भ है ? जिसके आज हम नुमाईन्दे बने हुए है
https://www.shirazehind.com/2016/05/blog-post_281.html
आज हम लोग हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाने जा रहे है। लोकतंत्र में मीडिया को चौथे स्तम्भ का स्थान दिया गया है। वेगैर नींव वाले इस स्तम्भ का एक पार्ट बनते हुए हम पत्रकार साथी निष्पक्ष रूप से जनता की आवाज बने हुए है। हम अपनी जान जोखिम में डालकर भ्रष्ट नेताओ , माफियाओं के काले कारनामो को जनता बीच लाने का काम कर रहे है। हम जिस संस्थान से जुड़कर गरीबो, मजलूमो की आवाज को बुलंद करके उन्हे न्याय दिलाने का कार्य करते रहते है वह संस्थान भी बुरा वख्त आने पर हम लोगो का साथ छोड़ देता है। ऐसे में हम लोग आज शोषित महसूस करते है। हम लोगो के बारे न तो सरकार सोचती न ही संस्थान न ही हमारे नेता।
मैने बीते एक मई को एक अखबार के सम्पादक व राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार शशि शेखर जी की मजदूर दिवस के मौके पर लिखी गयी लेख को पढ़ा था। उन्होने अपनी लेखनी से जो मजदूरो दर्द उकेरा था उसे पढ़कर मेरे आंखो में आशू आ गये थे। लेकिन जब मै उनके अखबार में काम करने वाले जिले से लेकर ग्रामीण अंचल तक के रिर्पोटरो से तहकीकात किया तो पता चला उनकी हालत दिहाड़ी मजदूरो से कई गुना बत्तर निकली। जिले पर काम करने वाले स्टिगरों की पगार पांच हजार के आसपास निकली तहसील और ब्लाक मुख्यालयों पर कार्यरत संवाददाताओं का मेहनताना एक हजार रूपया दिया जाना पाया गया। इतने कम पैसे में उनके मोटर साईकिल का पेट्रोल का खर्च निकलना तो दूर की बात चाय पान तक नही कर सकते है। ऐसे में निष्पक्ष पत्रकारित के बारे सोचना भी बेईमानी होगी। हम शशि शेखर जी से पुछना चाहता हूं कि क्या उन्हे अपने संस्थान में कार्य करने वाले मजदूरो के बारे में जानकारी नही है या वे खुद जानकर अनजान बने हुए है। क्या जिला और ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाले संवाददाता धुप में नही दौड़ते है। क्यो उनके बीबी बच्चे नही है।
सम्पादक जी यही रिर्पोटर स्टिगर ग्रामीण क्षेत्र की खबरे लाते है तभी आपके अखबार का पेज भरता है। यही लोग किसानो, मजदूरो ,मजलूमो की बेबसी की खबरे आप तक पहुंचाते है जिसके सहारे आप सम्पादकीय लिखते है। आप जरा अपने संस्थान के इन मजदूरो पर ध्यान देने का कष्ट करे।
पत्रकारो के नेता जो लखनऊ और दिल्ली में बैठकर राजनीत करते है वे भी हम जैसे जिला स्तर के पत्रकारो की समस्याओ की लड़ना दूर की बात जब कभी हम पर मुसीबत आती है तो वे सरकार के पक्ष में ही खड़े नजर आते है।
पत्रकार गरीबो ,मजलूमो की आवाज अपने अपने अखबार, चैनल्स के माध्यम से शासन प्रशासन तक पहुंचाने का काम करते है लेकिन मेरी आवाज कौन उठायेगा
अब समय आ गया है हम जिले के पत्रकार एक मंच पर आकर अपनी खुद आवाज बुलंद करते हुए अपना अधिकार प्राप्त किया जाय।
मैने बीते एक मई को एक अखबार के सम्पादक व राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार शशि शेखर जी की मजदूर दिवस के मौके पर लिखी गयी लेख को पढ़ा था। उन्होने अपनी लेखनी से जो मजदूरो दर्द उकेरा था उसे पढ़कर मेरे आंखो में आशू आ गये थे। लेकिन जब मै उनके अखबार में काम करने वाले जिले से लेकर ग्रामीण अंचल तक के रिर्पोटरो से तहकीकात किया तो पता चला उनकी हालत दिहाड़ी मजदूरो से कई गुना बत्तर निकली। जिले पर काम करने वाले स्टिगरों की पगार पांच हजार के आसपास निकली तहसील और ब्लाक मुख्यालयों पर कार्यरत संवाददाताओं का मेहनताना एक हजार रूपया दिया जाना पाया गया। इतने कम पैसे में उनके मोटर साईकिल का पेट्रोल का खर्च निकलना तो दूर की बात चाय पान तक नही कर सकते है। ऐसे में निष्पक्ष पत्रकारित के बारे सोचना भी बेईमानी होगी। हम शशि शेखर जी से पुछना चाहता हूं कि क्या उन्हे अपने संस्थान में कार्य करने वाले मजदूरो के बारे में जानकारी नही है या वे खुद जानकर अनजान बने हुए है। क्या जिला और ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाले संवाददाता धुप में नही दौड़ते है। क्यो उनके बीबी बच्चे नही है।
सम्पादक जी यही रिर्पोटर स्टिगर ग्रामीण क्षेत्र की खबरे लाते है तभी आपके अखबार का पेज भरता है। यही लोग किसानो, मजदूरो ,मजलूमो की बेबसी की खबरे आप तक पहुंचाते है जिसके सहारे आप सम्पादकीय लिखते है। आप जरा अपने संस्थान के इन मजदूरो पर ध्यान देने का कष्ट करे।
पत्रकारो के नेता जो लखनऊ और दिल्ली में बैठकर राजनीत करते है वे भी हम जैसे जिला स्तर के पत्रकारो की समस्याओ की लड़ना दूर की बात जब कभी हम पर मुसीबत आती है तो वे सरकार के पक्ष में ही खड़े नजर आते है।
पत्रकार गरीबो ,मजलूमो की आवाज अपने अपने अखबार, चैनल्स के माध्यम से शासन प्रशासन तक पहुंचाने का काम करते है लेकिन मेरी आवाज कौन उठायेगा
अब समय आ गया है हम जिले के पत्रकार एक मंच पर आकर अपनी खुद आवाज बुलंद करते हुए अपना अधिकार प्राप्त किया जाय।