'गौरैया घोसला बनाने लगी ओसारे में'
https://www.shirazehind.com/2014/03/blog-post_7865.html
डा.अरविंद मिश्र
जौनपुर : घर में चहचहाती गौरैया मन मोह लेती हैं। ग्रामीण घरों में आज भी गौरैया को चहचहाता देख शुभ मानते हैं। प्रदूषित पर्यावरण के चलते जहां कई पक्षी विलुप्त होने के कगार पर हैं वहीं गौरैयों की संख्या में भी निरंतर कमी होती जा रही है। आंचलिक गीतों के मशहूर कवि कैलाश गौतम की पंक्ति 'गौरैया घोसला बनाने लगी ओसारे में' पढ़कर यही लगता है कि इनका चहकना आज भी सबको प्रिय है। मार्च माह शुरू होते ही नर-मादा संयुक्त रूप से घास-फूस के तिनके की मदद से घोंसला बनाना शुरू कर देते हैं ताकि अप्रैल में मादा उसमें अंडे दे सकें। पक्षी विशेषज्ञ व साइंस ब्लाग एसोसिएशन के अध्यक्ष डा.अरविंद मिश्र ने बताया कि सभी अंडों से चूजे नहीं निकल पाते हैं क्योंकि अंडे समय से पहले फूट जा रहे हैं। उन्होंने इसके लिए पेस्टीसाइड प्रदूषण को जिम्मेदार बताते हुए कहा कि फसलों पर कीटनाशक रसायनों के प्रयोग से पेड़-पौधों के फूलों व पत्तों पर इसका जमाव बढ़ता जा रहा है। कीट पतंगों के बाद गौरैया चिड़ियों के खाने से उनकी कोशिकाओं में घातक रसायनों की मात्रा बढ़ जाती है। परिणाम स्वरूप अंडों की सुरक्षा कवच कमजोर व चूजों के निकलने से पहले फूटने का डर बना रहता है। गौरैयों की घटती संख्या की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने हेतु गौरैया दिवस पूरे विश्व में मनाया जाने लगा। भारत के मशहूर बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, अमेरिका की कार्नेल पक्षी प्रयोगशाला सहित फ्रांस और इंग्लैण्ड के भी जानी मानी पक्षी संस्थाओं की इसमें बड़ी भूमिका है। भारत के ही प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक सालिम अली की प्रसिद्ध आत्मकथा का नाम ही 'गिरना एक गौरैया का' है जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। डा.मिश्र ने बताया कि गौरैया का वैज्ञानिक नाम पासर डोमेस्टिकस है जबकि आज देश के आंचलिक भाषाओं में चिंट्टू कुर्वी, पिछुका, गुबाली, चकली, चिमनी के नामों से जाना जाता है। पंजाबी इसे चिड़ी, कश्मीरी चेर, बंगाली चरईपाणी तथा उड़िया घर चटिया के नाम से बुलाते हैं। डा.मिश्र के अनुसार शहरों में उगते कंकरीट के जंगल ने इनके पर्यावास को भारी क्षति पहुंचाई है।
जौनपुर : घर में चहचहाती गौरैया मन मोह लेती हैं। ग्रामीण घरों में आज भी गौरैया को चहचहाता देख शुभ मानते हैं। प्रदूषित पर्यावरण के चलते जहां कई पक्षी विलुप्त होने के कगार पर हैं वहीं गौरैयों की संख्या में भी निरंतर कमी होती जा रही है। आंचलिक गीतों के मशहूर कवि कैलाश गौतम की पंक्ति 'गौरैया घोसला बनाने लगी ओसारे में' पढ़कर यही लगता है कि इनका चहकना आज भी सबको प्रिय है। मार्च माह शुरू होते ही नर-मादा संयुक्त रूप से घास-फूस के तिनके की मदद से घोंसला बनाना शुरू कर देते हैं ताकि अप्रैल में मादा उसमें अंडे दे सकें। पक्षी विशेषज्ञ व साइंस ब्लाग एसोसिएशन के अध्यक्ष डा.अरविंद मिश्र ने बताया कि सभी अंडों से चूजे नहीं निकल पाते हैं क्योंकि अंडे समय से पहले फूट जा रहे हैं। उन्होंने इसके लिए पेस्टीसाइड प्रदूषण को जिम्मेदार बताते हुए कहा कि फसलों पर कीटनाशक रसायनों के प्रयोग से पेड़-पौधों के फूलों व पत्तों पर इसका जमाव बढ़ता जा रहा है। कीट पतंगों के बाद गौरैया चिड़ियों के खाने से उनकी कोशिकाओं में घातक रसायनों की मात्रा बढ़ जाती है। परिणाम स्वरूप अंडों की सुरक्षा कवच कमजोर व चूजों के निकलने से पहले फूटने का डर बना रहता है। गौरैयों की घटती संख्या की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने हेतु गौरैया दिवस पूरे विश्व में मनाया जाने लगा। भारत के मशहूर बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, अमेरिका की कार्नेल पक्षी प्रयोगशाला सहित फ्रांस और इंग्लैण्ड के भी जानी मानी पक्षी संस्थाओं की इसमें बड़ी भूमिका है। भारत के ही प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक सालिम अली की प्रसिद्ध आत्मकथा का नाम ही 'गिरना एक गौरैया का' है जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। डा.मिश्र ने बताया कि गौरैया का वैज्ञानिक नाम पासर डोमेस्टिकस है जबकि आज देश के आंचलिक भाषाओं में चिंट्टू कुर्वी, पिछुका, गुबाली, चकली, चिमनी के नामों से जाना जाता है। पंजाबी इसे चिड़ी, कश्मीरी चेर, बंगाली चरईपाणी तथा उड़िया घर चटिया के नाम से बुलाते हैं। डा.मिश्र के अनुसार शहरों में उगते कंकरीट के जंगल ने इनके पर्यावास को भारी क्षति पहुंचाई है।