1977 के चुनाव में इमरजेंसी की आग में झूलस गई थी कांग्रेस

नई दिल्ली। साल 1971 के चुनावों तक माना जाने लगा था कि भारतीय लोकतंत्र ने बड़ी गहराई से जड़ें जमा ली हैं। लेकिन 1977 के चुनाव से पहले देश के लोगों ने जो कुछ देखा। उसके बाद बस यही लगा कि कहीं ये देश में लोकतंत्र का अंत तो नहीं। देश के सामने इंदिरा गांधी का एक और नया रूप तब सामने आया जब 25 जून 1975 को उन्होंने पूरे देश को इमरजेंसी की आग में झोंक दिया। भारत के इतिहास में जब भी आम चुनावों की बात होगी तो 1977 के लोकसभा चुनावों का जिक्र जरूर किया जाएगा। ये चुनाव याद किया जाएगा इमरजेंसी की पीड़ा और दहशत के लिए, संवैधानिक ताकत के दुरुपयोग के लिए और याद किया जाएगा पहली बार कांग्रेस की करारी शिकस्त के लिए। 18 महीने की इमरजेंसी के बाद सरकार ने आम चुनाव मार्च 1977 में कराने का फैसला किया। जेल में बंद सभी बड़े, छोटे नेताओं और प्रदर्शनकारियों को रिहा कर दिया गया। सभी विपक्षी पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो गईं और जनता पार्टी के नाम से एक नई पार्टी का गठन किया गया। जनता पार्टी के नए लीडर बनाए गए जयप्रकाश नारायण। कुछ कांग्रेसी नेता जो इमरजेंसी के विरोधी थे, वो भी जनता पार्टी से जुड़ गए। जनता पार्टी ने इस चुनाव को 'इमरजेंसी के खिलाफ जनमत संग्रह' का नाम दिया। जनता पार्टी के चुनाव प्रचार का मुख्य मुद्दा था कांग्रेस का अलोकतांत्रिक छवि वाला शासन और इमरजेंसी के दौरान हुए जुल्म। प्रेस और जनता का मत कांग्रेस सरकार के खिलाफ था जबकि जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र की बहाली के लोकप्रिय प्रतीक बन चुके थे। 1975 में इंदिरा गांधी ने पूरे देश को इमरजेंसी की आग में झोंक दिया। जिससे जनता में कांग्रेस के प्रति अविश्वास चरम पर पहुंच गया। आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस को 1977 के चुनावों में करारी शिकस्त मिली थी। कांग्रेस को सिर्फ 154 सीटें मिलीं। कांग्रेस का वोट शेयर घटकर 35 प्रतिशत के नीचे चला गया। जनता पार्टी और गठबंधन को 542 में से 330 सीटें मिलीं। 295 सीटें अकेले जनता पार्टी के खाते से थीं। बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के हर चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस सिर्फ एक सीट ही जीत सकी। इंदिरा गांधी अपने चुनाव क्षेत्र रायबरेली और उनके पुत्र संजय गांधी अमेठी से हार गए। लेकिन कांग्रेस को पूरे भारत में हार का सामना नहीं करना पड़ा। महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। दक्षिण भारत में तो कांग्रेस बहुमत में रही। इसकी वजह ये थी कि इमरजेंसी का ज्यादातर असर उत्तर भारत में था। इसके अलावा उत्तर भारत की राजनीति के चरित्र में कुछ दूरगामी परिवर्तन देखने को मिले। मध्य और पिछड़ी जातियों का वोटर कांग्रेस से खुश नहीं था। जनता पार्टी ने ऐसे वोटर्स को एक नया प्लेटफॉर्म दिया। इस तरह 1977 का आम चुनाव सिर्फ इमरजेंसी से जुड़ा हुआ नहीं था। ये राजनीतिक बदलाव की नई इबारत लिख रहा था। साल 1977 के आम चुनावों के बाद जब जनता पार्टी को बहुमत हासिल हुआ तो पूरी दुनिया दंग रह गई। यकीन ही नहीं हुआ कि भारत में अब भी लोकतंत्र जिंदा है। इमरजेंसी की आग में झुलस चुके देशवासियों ने अपना फैसला सुना दिया था। पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। लेकिन जिस भरोसे के साथ लोगों ने जनता पार्टी को गद्दी में बिठाया। उस भरोसे पर पार्टी खरी नहीं उतर पाई। बहुमत मिलते ही जनता पार्टी में गुटबाजी शुरू हो गई। प्रधानमंत्री पद के लिए तीन प्रबल दावेदार खड़े हो गए। मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और बाबू जगजीवन राम। मोरारजी देसाई के नाम पर सहमति बनी। लेकिन सरकार के पास न तो कोई दिशा थी और न ही कोई कॉमन प्रोग्राम। कांग्रेस से अलग होकर बनी ये सरकार कुछ न कर सकी और गुटबाजी की वजह से सिर्फ 18 महीने के भीतर जनता पार्टी का बंटवारा हो गया। इसके बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व की सरकार ने अपना बहुमत खो दिया। इस बीच इंदिरा गांधी ने दांव खेलते हुए चरण सिंह को अपना समर्थन दिया। लेकिन चार महीने बाद ही कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया। इस तरह से चरण सिंह सरकार भी सिर्फ चार महीने ही टिक सकी। जनवरी 1980 में ताजा चुनाव कराए गए और इस बार जनता पार्टी को करारी शिकस्त मिली। खासतौर से उत्तर भारत में जहां पर 1977 के चुनावों में उन्होंने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। कांग्रेस को इस बार 353 सीटें मिलीं।
1977 छठी लोकसभा कुल सीटें 542
भारतीय लोकदल 295
 इंडियन नेशनल कांग्रेस 154
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया(मार्क्सवादी)- 22

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