बाकी जो कुछ बचा था महंगाई मार गई

दिल्ली में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय हुई है। चुनावी अखाड़े की नई-नई सूरमा आम आदमी पार्टी ने सत्ताधारी दल का सूपड़ा साफ कर दिया। दिल्ली के संसदीय इतिहास में पार्टी की ऐसी फजीहत पहले कभी नहीं हुई। वर्ष 1977 में आपातकाल समाप्त होने के बाद राजधानी में मेट्रोपोलिटन काउंसिल (तब इसका दर्जा विधानसभा के बराबर ही था) की 56 सीटों में से कांग्रेस ने 10 सीटें जीती थीं। यह पहला मौका है जब पार्टी महज आठ सीटों पर सिमट गई है। माना जा रहा है कि विपक्ष द्वारा कांग्रेस के खिलाफ महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों को सही मानते हुए दिल्ली के लोगों ने कांग्रेस को दहाई के आंकड़े तक नहीं पहुंचने दिया। राजधानी की जनता ने विकास के मुद्दे को सिरे से नकार कर साबित कर दिया कि यदि रसोई में सन्नाटा पसरा हो, तो विश्वस्तरीय एयरपोर्ट और मेट्रो के होने का कोई मतलब नहीं है।
कांग्रेस के खिलाफ लोगों का गुस्सा कितना जबरदस्त था इसकी बानगी शीला दीक्षित व उनके मंत्रिमंडल के चार मंत्रियों, विधानसभा अध्यक्ष डॉ. योगानंद शास्त्री, कभी भी चुनाव नहीं हारे पूर्व विधानसभा अध्यक्ष चौधरी प्रेम सिंह सहित अन्य नेताओं की हार में देखने को मिली।
दिल्ली बीते 15 वर्षो से एक प्रकार से कांग्रेस का किला बनी हुई थी। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता था कि दिल्ली विधानसभा में उसके न केवल 43 विधायक थे, बल्कि लोकसभा की सातों सीटें भी उसी के पास थीं। पिछले तीन विधानसभा व दो लोकसभा चुनाव में पार्टी ने लगातार जीत दर्ज की थी। निवर्तमान मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस ने विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी के तमाम नेता बीते 15 वर्षो में राजधानी में हुए विकास के गीत गाते रहे। महंगाई के मुद्दे पर दीक्षित ने कई बार कहा कि महंगाई पूरे देश में है, केवल दिल्ली में नहीं है।
दिल्ली के सियासी जानकारों की मानें, तो कांग्रेस की इस हार में केंद्र में पार्टी की अगुवाई में चल रही सरकार के खिलाफ लगे आरोपों ने भी अहम भूमिका निभाई। शायद यही वजह थी कि दीक्षित ने केंद्र सरकार से ताल्लुक रखने वाले तमाम मंत्रियों को दिल्ली के चुनाव प्रचार से दूर रखा।
कांग्रेस की हार इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि शहर की अनधिकृत कॉलोनियां, पुनर्वास कॉलोनियां, झुग्गी बस्तियां आदि जो उसका पारंपरिक वोट बैंक माना जाता था, वहां भी उसकी करारी हार हुई है। गरीबों, दलितों से ताल्लुक रखने वाली 12 में से 11 सीटें पार्टी के हाथ से निकल गईं।

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