जिस मंज़िल-ए-रिज़ा पे कोई ना जा सका,
https://www.shirazehind.com/2013/11/blog-post_8057.html
राह-ए-ख़ुदा क्या वो भरा घर लुटा गए,
ऐवान-ए-हक़ की नीवों में सीसा पिला गए।
कैसे थे सरफ़रोश गुलामान-ए-शाह-ए-दीं, मैदान-ए-कर्बला में हज़ारों पे छा गए।
जिस मंज़िल-ए-रिज़ा पे कोई ना जा सका, उस मंज़िल-ए-रिज़ा पे शहे-करबला गए।
खून-ए-जिगर से करके वो रोशन चराग़-ए-दीं, सारे जहां को नूर-ए-ख़ुदा से सजा गए।
अपने लहू से सींच के उस रेगज़ार को, शब्बीर करबला को गुलिस्तां बना गए।
कैसे थे सरफ़रोश गुलामान-ए-शाह-ए-दीं, मैदान-ए-कर्बला में हज़ारों पे छा गए।
जिस मंज़िल-ए-रिज़ा पे कोई ना जा सका, उस मंज़िल-ए-रिज़ा पे शहे-करबला गए।
खून-ए-जिगर से करके वो रोशन चराग़-ए-दीं, सारे जहां को नूर-ए-ख़ुदा से सजा गए।
अपने लहू से सींच के उस रेगज़ार को, शब्बीर करबला को गुलिस्तां बना गए।