जिला है, पिछडा गाजीपुर-और मांग, विश्वविद्यालय की?

    शिवेन्द्र पाठक
  पूर्वी उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े जिले गाजीपुर में, विश्वविद्यालय की माँग को लेकर, धरना, आमरण अनशन, तथा प्रशासन द्वारा अनशनकारियों पर किये गये दमनात्मक कार्यवाही और वह भी इस सीमा तक जिसे देख-सुनकर व्रितानियां हुकूमत की बर्बरता याद आ जाय। इन खबरों ने हमें अवाक कर दिया है।
    हम यह मानने को बाध्य हुए है कि पिछड़े तो हम है ही, मूर्ख भी है। इसे मुर्खता नही ंतो और क्या कहेंगे कि वर्तमान परिवेश में विश्वविद्यालय की माँग? माँग भी ऐसी  जिसे हमारे अधिकांश माननीयों ने नजदीक से देखा तक नहीं है और इस माँग के प्रति इतनी बेसब्री, कि बैठ गये आमरण अनशन पर? वह भी बिना जाने बुझे की आमरण अनशन सत्याग्रह के शस्त्रागार का अन्तिम एवम पवित्र शस्त्र है।
    आखिर हम इस बात को कब समझेंगे कि हमारी लोकप्रिय सरकारे और इनसे जुड़े हमारे माननीय, हमारे पिछड़ेपन के सच्चे हितैषी है तथा जिले के पिछड़ेपन की आन, बान, शान के सजग प्रहरी।


इन प्रहरियों को बेवकूफ बनाना इतना आसान है? वह बखूबी इस बात को समझते है कि इस पिछड़े जनपद के पिछड़ेपन के दृष्टिगत किसी भी दृष्टिकोण से विश्वविद्यालय का खुलवाना यहाँ के लिए अनुकूल नहीं होगा। याद कीजिए जब स्वर्गीय विश्वनाथ सिंह गहमरी, पण्डित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में सांसद थे और संसद में यहाँ से ले गये बैलों के गोबर को घोलकर उसमें से छने अनाज को दिखाते हुए बताया कि यह गोबर से निकला अनाज ही हमारे जनसामान्य के भोजन का आधार है। इस कारूणिक दृश्य को देख उपस्थित माननीय अवाक रह गये और नेहरू जी रो पड़े थे। तब यहाँ की गरीबी हटाने तथा इस जिले को व्यवसायिक केन्द्र बनाने के दृष्टिगत नेहरू जी द्वारा गठित पटेल आयोग ने गाजीपुर मुख्यालय के पास तत्काल रेलपुल तथा सड़क पुल का निर्माण तथा अनेक प्रकार के उद्योग धन्धे आदि स्थापित करने की सबल संस्तुति की थी।
    पटेल आयोग की इन सबल संस्तुतियों में से भारी जनदबाव मे सड़क पुल तो बन गया किन्तु बाकी सभी की सदन में चर्चा तक न करके हमारे प्रिय नेताओ ने आज तक लम्बित रखा, जिससे कि इस जनपद की शान के रूप में स्थापित पिछड़ापन बरकरार रहे और तद्् आधार पर ही उनकी सरकारें बनती-बिगड़ती रहें और सहयोग करना हमारी मजबूरी ।
    यह कहना भी गलत होगा कि यह आती जाती रहने वाली सरकारें हमारे जिले की चिन्ता नहीं करती या हमारे जनप्रतिनिधि हमारे लिए कुछ नहीं करते।
    पुनः याद कीजिए,कभी आप में से कोई किसी महानगर से अपने नगर, अपने गाँव लौटते थेे तो अपने मित्रों, जानने वालों को कितने चाव से वहां की विशेषता की बखान में चार से छः घण्टे सड़क जाम, बीयर तथा शराब की दुकाने, होटल और बार आदि की चर्चा करते थे। अब आपके मित्र बिचारे जो कभी महानगरों में गये ही नहीं उनके मन में यह टीस उठती थी कि काश हम भी यह सब देख पाते। विश्वास कीजिए हमारे लिए सतत चिन्तित हमारे माननीयों से हमारी यह व्यथा देखी नहीं गयी। इसलिए तत्काल शासन से मिल-मिलाकर ऐसी व्यवस्था बनायी कि अब अपने ही नगर के किसी भी चैराहे चाहे रौजा क्राॅसिंग हो या महुआबाग, स्टैट बैंक हो या जिला चिकित्सालय या अन्य कोई चैराहा, अब आपकी मर्जी है,चाहें जहां खड़े-खड़े जाम का नजारा करते रहो। रही दूसरी व्यथा तो उसकी भी अनदेखी न कर तत्काल लगभग हर चैराहों पर सरकारी बियर और अंग्रेजी हिन्दी शराब की दुकाने खुलवा हमारे लिए तमाम विकल्प खोल दिये।
    इतना ही नहीं सामाजिक चिन्तकों की यह चिन्ता कि आजकल बच्चों पर उनके वजन से ज्यादा पढ़ाई का बोझ है को भी गम्भीरता से लेते हुए स्कूल के अध्यापकों, अध्यापिकाओं को जनगणना अथवा पोलियों ड्राॅप पिलाने जैसे कार्यों में फंसा दिया। साथ ही हर वक्त विद्युत की कटौती, मिट्टी तेल की कमी आदि उल्लेखनीय कार्य करके इन चिन्तकों की भी चिन्ता दूर कर दी। रही बात महिलाओं के बाबत तो उनके हितों के लिए इस प्रतिबद्ध सरकार ने महसूस किया कि अपने कंजूस पतियों के कारण ही यह होटलों या रेस्तराओं के लजीज व्यंजनों से वंचित है। इसके लिए तत्काल कुकिंग गैस की आपूर्ति में कटौती, घटतौली आदि को बढ़ावा दे गैस के अभाव में महीने के दो चार दिन ही सही इन्हे बाजार के सुस्वाद व्यंजनों का स्वाद लेने के अवसर प्रदान किया।
    हमारी लोकप्रिय सरकार इस प्रकार के तमाम जनोपयोगी प्रत्यक्ष सेवा के अतिरिक्त अनेक अप्रत्यक्ष सेवा भी कर रही है, जिसका परिणाम दूरगामी होगा और जिसकी विस्तृत जानकारी दो हजार चैदह के चुनाव के दौरान प्रत्याशियों द्वारा बतायी ही जायेगी।
    आज एक ओर यह लोकप्रिय सरकार और उसके जनोपयोगी कार्य है तो दूसरी ओर इनके सोच के विपरीत जनता है, जो अनावश्यक चिल्लाती रहती है। यहाँ पानी नहीं/बिजली नहीं/चलने को सड़क नहीं/खाना बनाने को गैस नहीं/लैम्प जलाने को तेल तक नहीं आदि आदि यह नगर है या नरक। उस पर माँग करते है विश्वविद्यालय की, अरे माँगना ही है तो कहीं बन रहे विश्वविद्यालय को बनाने का ठीका पट्टा माँगते या कैसिनों आदि माँगते तो वह समझ में आता।
अब जरा रूकिये और ठण्डे मन से विचार कीजिए कि जो कुछ हमारे लिए सरकार ने किया,उसके लिए हम क्या करते है? क्या लगातार हम भूल नहीं करते आ रहे है? क्या भूल कर रहे है वह हमारे लिये विचारणीय है। और अन्त में अरविन्द असर के कहें शब्द याद आते है।
‘‘है धर्म युद्ध तो तुम्हे लेना है एक पक्ष,बरना रहोंगे बाद में घर के न घाट के।
जब भी लिखेगी सच ही लिखेगी मेरी कलम,मुझमें नही है गुण किसी चारण या भाट के।।
                      
                           
                             
             

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