जनपद गाजीपुर के प्रथम कवि सूफी उस्मान


शिवेद्र पाठक  
गाजीपुर नगर निवासी शेख हुसैन के पांच पुत्रों मे एक, शेख उस्मान जो ‘‘चित्रावली’’ के रचयिता थे, तथा उनका उप नाम ‘‘मान‘‘ था। कवि ने चित्रावली की रचना 1020 हिजरी अर्थात सन् 1613 ईसवीं में किया। इसके पूर्व का जनपद के किसी कवि की कोई काव्य रचना उपलब्ध नहीं है, इसलिए इन्हें जनपद के आदि कवि के रूप में माना जाता है।

            नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी ने अपनी जिन ग्रंथ मालाओं के प्रकाशन द्वारा हिन्दी को श्री सम्पन्न करने का प्रयत्न किया है उसमें यह ग्रन्थ 88 वाॅ पुष्प है और तभी से यह ग्र्रन्थ सर्व सुलभ भी हुआ है।

            सभा के तत्कालीन प्रकाशन मंत्री पंडित करूणा पति त्रिपाठी के शव्दों मे यह सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी के परवर्ती थे और अपनी रचना मे इन्होने बहुत कुछ जायसी की समकक्षता प्राप्त की है। चित्रावली उन दिनों उतनी ही लोकप्रिय थी जितनी पद्मावत, इसमे वह सभी उच्चस्तरीय गुण और तत्व विद्यमान है जो किसी भी मानक सूफी काव्य मे होने चाहिए। सभा के तत्कालीन सम्पादक जगन्मोहन वर्मा इन्हे जहांगीर काल का बताते हुए आगे कहते है कि कवि ने चित्रावली की रचना 1020 हिजरी तद्नुसार सन् 1613 ई0 मे किया। सर्वप्रथम इस ग्रन्थ की जानकारी सभा को सन् 1904 मे महाराज साहब के पुस्तकालय से प्राप्त हुई। प्राप्त ग्रन्थ कैथी लिपि मे सम्वत् 1802 मे लिखी हुई है ग्रन्थ के अन्त मे निम्नांकित वाक्य अंकित है।

            ‘‘ इतिश्री चित्रावली कथा सम्पुरन, जो देखा सो लिखा, पण्डित जन सो विनती हमारी, भूला अक्षर लिजियों सम्हारी, सम्वत् 1802 मिती सावन सुदी 15 रोज सोमवार को पोथी तैयार हुआ। पोथी चित्रावली लिखा। हजारी अजब सिंह ने खोम खास बहेलिया वतन चिनाड़गढ पातसा मुहम्मद शाह सन् 28 अजीमाबाद मे पोथी लिखाया। अजीमाबाद के सुबा नबाब जैनदी अहमद खाॅ जी के अमल मो लिखा गया। दस्खस्त फकीर चन्द कायस्थ के हाथ वतन कड़े मानिकपुर के वाशिन्दे (1) पोथी मो पैसे लगे रूपैय््या 101 सिक्का। मुसव्वर औ लिखाई औ कागद औ रोशनाई औ जिल्दसाज‘‘। ग्रन्थ चित्रावली मे कवि द्वारा पृष्ठ-7 पर गाजीपुर नगर का अद्भुत चित्रण किया गया है जो तत्कालीन उत्कृष्ट परम्परा और परिवेश के गौरवपूर्ण गाथा को रेखांकित करता है। जो इस प्रकार है।

गाजीपुर उत्तम स्थाना, देवस्थान आदि जग जाना।

गंगा मिलि जमुना तहँ आई, बीच मिली गोमती सुहाई।।

तिरधारा उत्तम तट चीन्हा, द्वापर तहँ देवतन तप कीन्हा।

पुनि कलजुग महँ वसगित भई, जानहु अमरपुरी बसि गई।।

ऊपर कोट हेठ सुरसरी, देखत पाप विथा जहँ हरी।

बसहि लोग बुध बहु-विज्ञानी, सैयद शेख बसै गुरू ज्ञानी।

ज्ञान छाडि़ मुख आन न भाषा, सुने संतोष देखि अभिलाषा।

ज्ञान ध्यान कह देवता, समर समै पुनि सूर।

तप मह मौन सभा चतुर, अरि मुख सिंह सदूर।। (24)

पुनि तहँ लोग बसै सुखबासी, घर-घर देखि इंद्रासन भासी।

मोगल पठान बसहि षँडवाहे, रन अमेट जिन्ह साह सराहे।

पुनि रजपूत बसहि रन रूरे, और गुनी जन सब गुन पूरे।

भाट कलावत बसै सुजाना, जिन्ह पिगल संगीत बखाना।

गुन चरसा बिनु आन न काजा, जो देखो अपने घर राजा।

जहँ तहँ नाच कूद पुनि होई, ठुमकत बाट चलै सब कोई।।

जिन साजे जेहि ठाँव अवासा, सोई, पुहुमी ताहीं कबिलासा।

ताजी तुरकी चढि़ चलहि, जानहु उमरा मीर।

सब सुखबास नगर महँ, परसन बासी तीर।। (25)

हिंदू तुरक सराहौ कहा, चारिहु बरन नगर भरि रहा।

ब्राह्मण सब पंडित और ज्ञानी, चारो वेद बात जिन्ह जानी।।

होम ज्ञाप स्नान ´िकाला, तजहि न एकौ तीनिहँु काला।

ख´ी बैस सबै पुनि धनी, नैन न फेरहि देखे अनी।

सुन्द्रह घर घर बनिज पसारा, निस दिन करहि धरम व्यवहारा।

विविध बखान ज्ञान कर करहीं, तरूनि बैठि सब रस उच्चरही।।

केलि कोलाहल चहुँ दिसि होई, दुख की बात न जानै कोई।

घर घर नगर बधावरा, गलियन सुगँध बसाइ।

एक दिस बाजत आवै, एक दिस बाजत जाइ।। (26)







                                           षिवेन्द्र पाठक

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