घूसखोर आईजी, ऐय्याश एडीजी, हत्यारा डीजीपी... लंबी है ये कहानी, सुनो कुमार सौवीर की जुबानी
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घूसखोर आईजी, ऐय्याश एडीजी, हत्यारा डीजीपी... लंबी है ये कहानी, सुनो कुमार सौवीर की जुबानी
by Rajesh Srivastava on Monday, August 15, 2011 at 8:22pm
दिल्ली में आलोक तोमर के होने को मैं एक विलक्षण परिघटना मानता रहा, क्योंकि आलोक तोमर अप्रत्याशित थे, अनमैनेजबल थे, वे वो लिख देते थे, जिसे कहने भर में कई लोगों को पसीने छूट जाते थे. वो वह कर देते थे, जिसके बारे में सोचने में कई लोगों की थूक सरक जाती थी. वो केवल प्यार से जीते जा सकते थे, प्रलोभन और दबंगई से नहीं.
वे कमजोरों के लिए संरक्षक और सहयोगी वाला भाव रखते थे. वे हरामखोरों के लिए विध्वसंक की भावभंगिमा लिए रहते थे... आलोक तोमर को कुछ शब्दों, वाक्यों में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. उनके गुजर जाने के बाद दिल्ली खाली-वीरान सी लगती है. यहां का पत्रकार या तो नौकरी कर रहा है या दलाली. बीच में कोई नहीं है. कुछ एक हैं तो वे होने बने रहने के लिए चुप साधकर शीर्षासन कर रहे हैं. हालांकि पुण्य प्रसून बाजपेयी जैसे पत्रकार, रवीश कुमार जैसे पत्रकार उम्मीद जगाते हैं. सच-सच बोलने का साहस कई खतरे उठाकर कर जाते हैं. पर आलोक तोमर में जो बात थी, वो इनमें भी नहीं. आलोक तोमर ने अपने जीवर के आखिरी दशक में बिना किसी बैनर और मंच के सिर्फ न्यू मीडिया के जरिए जो पहचान बनाई, जो लेखन किया, जो प्रेरणा युवाओं को दी, जो आग अपने अंदर दिखाई, वो बेमिसाल है.
यह सब इसलिए लिख रहा क्योंकि मुझे कुमार सौवीर के बारे में थोड़ा-सा बताना था. लखनऊ का यह पत्रकार, कुमार सौवीर, अपने करियर में 11 बरस, लगातार बेरोजगार रहा. इनके नाम लखनऊ से लेकर बनारस तक में इतने किस्से हैं कि आप सुनते जाएं और सोचते जाएं कि क्या ऐसा पत्रकार भी आज के दौर में है. दुस्साहस और ईमानदारी, दो चीजें इनमें इतनी भारी मात्रा में भरी हुई हैं कि आज के दौर में आरडीएक्स माने जाने वाले इन दोनों चीजों के कारण उन्हें बराबर तकलीफ, बेरोजगारी, अकेलापन, तनाव, मिसफिट होने जैसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है.
इन दिनों भी वे अकेलेपन में हैं. महुआ न्यूज के यूपी ब्यूरो चीफ पद से कई कारणों के चलते इस्तीफा देने के बाद से वे अभी किसी संस्थान से जुड़े नहीं हैं. पर वे यह चाहते भी नहीं कि चुप साधकर बैठे रहें. सो, भड़ास पर उन्होंने जोरदार ढंग से लिखना शुरू कर दिया है. मैं उनका दिल से इस्तकबाल करता हूं. अफसरों और मंत्रियों के आगे पूंछ हिलाने के इस दौर में कुमार सौवीर लखनऊ के ऐसे पत्रकार हैं जो बिना नतीजे की परवाह किए अफसरों और मंत्रियों-नेताओं से वही पूछते हैं जो बिलकुल खरा, सटीक और सामयिक होता है. भले ही उनके सवाल से अफसर और नेता की स्थिति खराब हो जाए, बगलें झांकने लगें.
कुमार सौवीर कलम और हाथ, दोनों का बखूबी इस्तेमाल करना जानते हैं. तभी वो दलाली और लायजनिंग के इस दौर में कथित बड़े बड़े अफसरों, नेताओं और पत्रकारों के लिए दहशत की तरह होते हैं. उनकी कुख्याति के किस्से अगर कोई लिखे तो लाखों पत्रकारों का दिल-दिमाग खुले. लेकिन मेरे लिए कुमार सौवीर रोल माडल की तरह हैं. और, एक बड़े संबल की तरह, की मेरे साथ कोई खड़ा नहीं होगा तो कुमार सौवीर खड़े होंगे. ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि इस टाइमलेस एंड एक्स्ट्रीम सेलफिश दौर में अपनों के लिए कुमार सौवीर के पास खूब टाइम होता है. और यही उनकी एकमात्र पूंजी है.
लीजिए, कुमार सौवीर का एक ताजा राइटअप पढ़ें और आखिर में उनके कुछ लिखे के लिंक. उनका लेखन भड़ास4मीडिया पर जारी रहेगा. उनका फिर से मैं स्वागत करता हूं. आजकल कुमार सौवीर अपनी मेल आईडी में सिग्नेचर के बाद अपनी व्याख्या, अपनी स्थिति का बखान कुछ इन शब्दों में करते हैं- ''कुमार सौवीर- स्वतंत्र पत्रकार हूं, और आजादी की एक नयी और बेहतरीन सुबह का साक्षी भी। आप भी आइये ना। प्रतीक्षा में ही तो हूं आपकी।''
वे कमजोरों के लिए संरक्षक और सहयोगी वाला भाव रखते थे. वे हरामखोरों के लिए विध्वसंक की भावभंगिमा लिए रहते थे... आलोक तोमर को कुछ शब्दों, वाक्यों में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. उनके गुजर जाने के बाद दिल्ली खाली-वीरान सी लगती है. यहां का पत्रकार या तो नौकरी कर रहा है या दलाली. बीच में कोई नहीं है. कुछ एक हैं तो वे होने बने रहने के लिए चुप साधकर शीर्षासन कर रहे हैं. हालांकि पुण्य प्रसून बाजपेयी जैसे पत्रकार, रवीश कुमार जैसे पत्रकार उम्मीद जगाते हैं. सच-सच बोलने का साहस कई खतरे उठाकर कर जाते हैं. पर आलोक तोमर में जो बात थी, वो इनमें भी नहीं. आलोक तोमर ने अपने जीवर के आखिरी दशक में बिना किसी बैनर और मंच के सिर्फ न्यू मीडिया के जरिए जो पहचान बनाई, जो लेखन किया, जो प्रेरणा युवाओं को दी, जो आग अपने अंदर दिखाई, वो बेमिसाल है.
यह सब इसलिए लिख रहा क्योंकि मुझे कुमार सौवीर के बारे में थोड़ा-सा बताना था. लखनऊ का यह पत्रकार, कुमार सौवीर, अपने करियर में 11 बरस, लगातार बेरोजगार रहा. इनके नाम लखनऊ से लेकर बनारस तक में इतने किस्से हैं कि आप सुनते जाएं और सोचते जाएं कि क्या ऐसा पत्रकार भी आज के दौर में है. दुस्साहस और ईमानदारी, दो चीजें इनमें इतनी भारी मात्रा में भरी हुई हैं कि आज के दौर में आरडीएक्स माने जाने वाले इन दोनों चीजों के कारण उन्हें बराबर तकलीफ, बेरोजगारी, अकेलापन, तनाव, मिसफिट होने जैसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है.
इन दिनों भी वे अकेलेपन में हैं. महुआ न्यूज के यूपी ब्यूरो चीफ पद से कई कारणों के चलते इस्तीफा देने के बाद से वे अभी किसी संस्थान से जुड़े नहीं हैं. पर वे यह चाहते भी नहीं कि चुप साधकर बैठे रहें. सो, भड़ास पर उन्होंने जोरदार ढंग से लिखना शुरू कर दिया है. मैं उनका दिल से इस्तकबाल करता हूं. अफसरों और मंत्रियों के आगे पूंछ हिलाने के इस दौर में कुमार सौवीर लखनऊ के ऐसे पत्रकार हैं जो बिना नतीजे की परवाह किए अफसरों और मंत्रियों-नेताओं से वही पूछते हैं जो बिलकुल खरा, सटीक और सामयिक होता है. भले ही उनके सवाल से अफसर और नेता की स्थिति खराब हो जाए, बगलें झांकने लगें.
कुमार सौवीर कलम और हाथ, दोनों का बखूबी इस्तेमाल करना जानते हैं. तभी वो दलाली और लायजनिंग के इस दौर में कथित बड़े बड़े अफसरों, नेताओं और पत्रकारों के लिए दहशत की तरह होते हैं. उनकी कुख्याति के किस्से अगर कोई लिखे तो लाखों पत्रकारों का दिल-दिमाग खुले. लेकिन मेरे लिए कुमार सौवीर रोल माडल की तरह हैं. और, एक बड़े संबल की तरह, की मेरे साथ कोई खड़ा नहीं होगा तो कुमार सौवीर खड़े होंगे. ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि इस टाइमलेस एंड एक्स्ट्रीम सेलफिश दौर में अपनों के लिए कुमार सौवीर के पास खूब टाइम होता है. और यही उनकी एकमात्र पूंजी है.
लीजिए, कुमार सौवीर का एक ताजा राइटअप पढ़ें और आखिर में उनके कुछ लिखे के लिंक. उनका लेखन भड़ास4मीडिया पर जारी रहेगा. उनका फिर से मैं स्वागत करता हूं. आजकल कुमार सौवीर अपनी मेल आईडी में सिग्नेचर के बाद अपनी व्याख्या, अपनी स्थिति का बखान कुछ इन शब्दों में करते हैं- ''कुमार सौवीर- स्वतंत्र पत्रकार हूं, और आजादी की एक नयी और बेहतरीन सुबह का साक्षी भी। आप भी आइये ना। प्रतीक्षा में ही तो हूं आपकी।''